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________________ (१६७) राजधानी बारह हजार योजन लम्बी, चौड़ी, विस्तार वाली है, और उसका घेराव सैंतीस हजार से कुछ अधिक है । (१४१-१४३) वप्रो रत्नमयस्तस्या राजधान्या विराजते । सप्तत्रिंशद्योजनानि सार्दानि स समुच्छ्रितः ॥१४४॥ और इस राजधानी का साढे सैंतीस हजार योजन एक कोट-किला है, वह रत्नमय है । (१४४) तथोक्तं जीवाभिगमे ।से पागारे सत्तत्तीसं जो अणाई अद्ध जो अणं च उठ्ढं उच्चत्तेणं॥ समवायांगेतु सव्वासुणं विजय वेजयंतजयंत अपराजिआसु रायहाणी सु पागारा सत्त त्तीसं जो अणाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता इति उक्तम् ॥ ___ जीवाभिगम सूत्र में इसी तरह साढे सैंतीस योजन ऊँचा कहा है । जबकि श्री समवायांग सूत्र में तो विजय, वैजयंत, जयंत अपराजित इन देवों की राजधानी का किला साढे सैंतीस योजन ऊँचा कहा है । मूले च विस्तृतः सोर्द्धा द्वादशायोजनीम् । मध्ये च विस्तृतः क्रोशाधिकानि योजनानि षट् १४५॥ · अर्ध क्रोशाधिकं मौलौ विस्तृतो योजनत्रयम् । असो नानारत्नमयैः कलितः कपिशीर्षकैः ॥१४६॥ यह किला मूल में साढे बारह योजन चौड़ा, मध्य भाग में छ: योजन और एक कोश चौड़ा है और ऊपर साढ़े तीन योजन चौड़ा है इस को विविध प्रकार के रत्नों का कंगारे (किल्ला कलाप) है । अर्ध क्रोशमितायाम क्रोशतुर्यांशविस्तृतम् । देशोनार्धकोशतुगमेकैकं कपिशीर्षकम् ॥१४७॥ वे प्रत्येक कंगारे आधा कोश लम्बा, एक चतुर्थांश कोश चौड़ा और लगभग आधा कोस ऊँचा है । (१४७) वप्रस्यतस्यैकैकस्यां बाहायां जिनपुंगवैः । पंचविंश पंचविंश द्वाराणां शतमीक्षितम् ॥१४८॥ उस किले की एक-एक बाहा में जिनेश्वर भगवन्त ने सवा सौ सवा सौ द्वार कहे हैं । (१४८)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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