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________________ (१६६) . सेनाः सेनान्यश्च सप्त पूर्वोक्त व्यन्तरेन्द्रवत् । आत्मरक्षकदेवानां सहस्राणि च पोडश ॥१३७॥ इन प्रत्येक देवों की तीन-तीन पर्षदा है । उसमें अभ्यन्तर पर्षदा में आठ हजार, मध्य पर्षदा में दस हजार तथा बाह्य पर्षदा में बारह हजार देव होते हैं । इन प्रत्येक को एक-एक हजार के परिवार वाली चार-चार पटसनियां है और पूर्वोक्त व्यन्तरेन्द्र के समान सात प्रकार की सेना, सात सेनापति और सोलह हजार आत्म रक्षक देव होते हैं । (१३५-१३७) प्रत्येक मेवं विजयप्रमुखाणां परिच्छदः । सर्वेऽपि विजयाद्यास्ते तुल्याः पल्यायुषः स्मृताः ॥१३८॥. जिस तरह विजय आदि चारों देवों का सारा परिवार है, उसी तरह सारा समान परिवार है । तथा उनका आयुष्य भी एक समान एक पल्योपम का है। (१३८) पूर्वोक्तानां निज निज नगरी वासिनां च ते । व्यन्तराणां व्यन्तरीणामैश्वर्यमुपभुंजते ॥१३६॥ वे अपनी-अपनी राजधानियों में रहने वाले व्यन्तर देव-देवियों के ऊपर अधिकार रखते हैं - उनके द्वारा ऐश्वर्य भोगते हैं । (१३६) एवं द्वाराणि चत्वारि सासु जगतीष्वपि । तत्र जम्बूद्वीपसत्कविजयद्वारनाकितः ॥१४०॥ जम्बू द्वीप के समान सर्व द्वीप की 'जगती' किले में विजयादि चार-चार द्वार आए हैं । (१४०) विजयाद्वारतः प्राच्यां दिशि तिर्यगसंख्यकान् । द्वीपाब्धीन् समतिक्रम्य जम्बूद्वीपेऽस्त्यथा परे ॥१४॥ योजनानां सहहस्राणि द्वादशायतविस्तृता । राजधानी परिक्षेपस्तस्याश्चै वमुदीरितः ॥१४२॥ सप्तत्रिंशत्सहस्राणि योजनानां शतानि च । नवैव सप्तचत्वारिंशत् किंचिदधिकान्यपि ॥१४३॥ युग्मं । इस जम्बूद्वीप के विजय द्वार के देव की भी राजधानी अन्य जम्बूद्वीप में है, उस विजय द्वार से पूर्व दिशा में असंख्यात द्वीप समुद्र के बाद हाता है । उसकी
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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