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________________ (१६५) इत्येवं विजयद्वारं लेशतो वर्णितं मया । तृतीयोपांगमालोक्यविशेष विस्तरार्थिभिः ॥१२६॥ इस तरह से मैने विजय द्वार का कुछ वर्णन किया है विस्तार जानने की इच्छा वाले को तीसरे उपांग को देखना चाहिए । (१२६) यो योऽस्यातिधपतिर्देवः तं तं सामानिकादयः । आह्वयन्ति विजयेति पुस्तकेषु तथोक्तितः ॥१३०॥ तदिदं विजय स्वामि योगाद्विजयनामकम् । अथवामुष्य नामेदं त्रैकालिकं च शाश्वतम् ॥१३१॥ इस द्वार का अधिपति देव सामानिक देवता 'विजय' नाम से बोला जाता है इस कारण से यह द्वार विजय नाम से पहिचाना जाता है अथवा इसका नाम त्रिकालिक अर्थात शाश्वत है, इस तरह समझना । (१३०-१३१) एवं क्षेत्रद्वीपवार्धिनामानि स्युः यथायथम् । नित्यानि स्वामियोगस्तु यथास्थानं प्रवक्ष्यते ॥१३२॥ इसी तरह क्षेत्र द्वीप और समुद्रों के नाम भी शाश्वत है । उनके स्वामी का सम्बन्ध योग्य स्थान पर कहने में आयेगा । (१३२) यथेदं विजयद्वारं तथा त्रीण्यपराण्यपि । समरूपाणि किन्त्वीशा द्वारतुल्याभिधाः सुराः ॥१३३॥ वैजयन्तो जयन्तश्चापराजित इति क्रमात् । . चत्वार्येषां सहस्राणि सामानिकसुधाभुजाम् ॥१३४॥ वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के जो शेष तीन द्वार हैं उन का सारा स्वरूप विजय द्वार के समान ही समझना । उनके स्वामी देव का नाम भी इन द्वारों के नाम अनुसार वैजयंत जयंत और अपराजित हैं । इन प्रत्येक के चार-चार हजार सामानिक देव हैं । (१३३-१३४) सहस्राणि च देवानामष्टाभ्यन्तरपर्षदि । देवानामयुतं मध्यपर्षदि स्फातिशालिनाम् ॥१३५॥ स्युः द्वादश सहस्राणि देवानां बाह्य पर्षदि । चतस्रोऽग्रमहिष्यश्च स्युः साहस्रपरिच्छदाः ॥१३६॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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