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पुलक, सौगन्धि, अंजन, रजत ज्योतिरस, अंक, अंजन, पुलक, रिष्ट, जातरूप और स्फटिक होते हैं । (१०१-१०३)
श्री वत्स मत्स्य दर्पण भद्रासन वर्द्धमान वर कलशाः। . स्वस्तिक नन्दात्तौं द्वारोपरि मंगलान्यष्टौ ॥१०४॥ इन द्वारों पर श्री वत्स, मत्स्य, दर्पण, भद्रासन, वर्द्धमान, कलश, स्वस्तिक और नन्दावर्त ये अष्ट मंगल शोभायमान हो रहे हैं । (१०४)
द्वारस्यास्य वज्रमयो माढ भागः प्रकीर्तितः । माढस्य शिंखरं रौप्यमुल्लोचरस्तपनीयजः ॥१०॥
इस द्वार का माढ वज्रमय है, माढ का शिखर रजतमय है और धुम्मतगुम्मट सुवर्णमय कहा है । (१०५).
मणिवंश लोहिताक्ष प्रतिवंशैः रजत बद्ध भूभागैः । द्वारं गवाक्ष कटकैः विराजते तत्समुद्रदिशि ॥१०६॥
समुद्र की दिशा की ओर रजत से बना हुआ, भू भाग वाला, मणि वंश लोहिताक्ष, पंरतिवंश आदि रत्नों से जड़ित.गवाक्षो की श्रेणि से यह द्वार शोभता है। (१०६) .
भित्तावुभयतो भित्तिगुलिकाः पीठ सन्निभाः ।
अष्टषष्टयाधिकं शतं शय्यास्तावत्य एव च ॥१०७॥
उस द्वार के दोनों ओर एक सौ अड़सठ चौतरे हैं और इन चौतरों पर उतने ही संख्या में शय्या होती हैं।
रत्नानि ब्याल रूपाणि मणि मय्यश्च पुत्रिकाः । ... अलंकुर्वन्ति तद्द्वारं मणिदामादिभूषितम् ॥१०८॥
ये द्वार, मणि आदि की मालाओं तथा रत्नमय सिंहों की पुतलों तथा मणियों की पुतलियों से शोभायमान हो रहे हैं । (१०८)
तथा निषद्नस्थानमेकै कं पार्श्वयोर्द्वयोः । • तत्र द्वौ द्वौ च प्रत्येकं मांगल्य कलशौ मतो ॥१०॥
इसके दोनों ओर में एक-एक, दो बैठक होती हैं और प्रत्येक बैठक पर दो-दो मंगल कलश होते हैं । (१०६)