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(१५८) इन सब पर्वतों, गृह जलाशय तथा मंडपों में व्यन्तर देव अपनी इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं । (८५)
परितो जगती भाति गवाक्षवलयेन सा । गवाक्षवलयं तच्च गव्यूतद्वितयोच्छ्रितम् ॥८६॥ शतानि पंच धनुषां विस्तीर्ण चारू चित्रितम् । कृतनेत्रमनोमोदं सुराणां रमणो चितम् ॥८७॥ युग्मं ।
इस जगती के किले पर चारों तरफ एक गवाक्ष वलय है, वह गवाक्ष वलय दो कोश ऊँचे, पांच सौ धनुष्य चौड़े और सुन्दर चित्रयुक्त होने से, दृष्टि और मन को आनंद देते हैं, तथा देवों के क्रीड़ा करने योग्य है । (८६-८७)
लवणोद दसमासन्न जगतीभित्तिमध्यगम् । .. दृश्यमानाब्धिकुतुकं ज्ञातव्यं सर्वतः स्थितम् ॥८॥
लवण समुद्र के नजदीक रहे जगती के किलों के मध्य भाग में ये गवाक्ष वलय आये है, वहां से समुद्र के सर्व कौतुक दिखते हैं । (८८)
अत्र इदं गवाक्ष कठकं जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति वृत्तौ जगतोभित्तिमध्य गत मुक्तम ॥जम्बूद्वीपसंग्रहणी वृत्तौ जग्त्या उपर्युक्तम्।तथा च तद् ग्रन्थः । तस्या पार्श्वद्वयेऽपि द्वौ वनखंडौवेदिकामानदैथ्यौं विद्यते । नवरं विस्तारेणाभ्यन्तरः सार्धधनुः शतद्वयोनयोजन युग्म प्रमाणः । वाह्यस्तु वनखंडः अर्धाष्टमधनुः शतहीन योजन युग्म मानः । यतः तत्र अभ्यन्त रात् वन खंडात् अधिकानि पंचधनुः शतानि जालकट केनावरूद्धानि ॥ परं श्री मलय गिरि पादैः न तद्विवक्षितम् । द्वयोगरपि वनखण्डयोः एकमेव मान मुक्तम् । तत्वं तु बहुश्रुता विदन्तीति ॥
यह गवाक्ष कटक जगती के किल्ले के मध्य भाग में आया है । इस तरह जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति की टीका में कहा है परन्तु जम्बूद्वीप संग्रहणी की टीका में तो जगती के किले के ऊपर आया है । इस तरह बताया है । यह पाठ इस तरह है - जगती के दोनों ओर दो बगीचे हैं इन दोनों की लम्बाई वेदिका के समान है, परन्तु चौड़ाई में अन्तर है । अन्दर के बगीचे की चौड़ाई दो योजन में अढाई सौ धनुष्य कम है और बाहर के बगीचे की चौड़ाई दो योजन साढ़े सात सौ धनुष्य कम है । क्योंकि बाहर के बगीचे में पांच सौ धनुष्य के विस्तार का गवाक्ष कटक आया है । आचार्य श्री मलयगिरि इस विषय में संमत नहीं होते । उन्होंने तो दोनों