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इस प्रकार से वेदिका का विस्तार और दोनों बगीचों का विस्तार मिलाने से चार योजन होता है । यह जगती का पूर्ण व्यास होता है । (६४)
पुष्पि तैः फलितैः शाखा प्रशाखा शत शालितैः । अनेकोत्तम जातीय वृक्ष रम्य च ते वने ॥६५॥
सेंकड़ों शाखा, प्रशाखा वाले और फल-फूल वाले अनेक उत्तम वृक्षों से वे दोनों बगीचे शोभायमान है । (६५)
विराजते च भूभाग एतयोः वनखंडयोः । मरू त्कीर्ण पंचवर्ण पुष्पप्रकरपूजितः ॥६६॥
इस बगीचे की भूमि वायु से गिर पड़े पुष्कलं पंचवर्ण पुष्पों के कारण से मानो किसी ने भूमि पूजा की हो इस तरह दिखती है । (६६)
कस्तुरिकै लाकर्पूरचंन्दनाधिक सौरभैः । अनिलान्दोलनोद्भूतवीणादिजित्वराग्वैः ॥६७॥ अत्यन्त कोमलैः नानावणे: वर्ण्यस्तृणांकुरैः । रोमोद्गमैरिव भुवः सुरकीडा सुख स्पृशः ॥६८॥ युग्मं ।
कस्तुरी, इलायची, कपूर, तथा चन्दन आदि से भी अधिक सुगन्ध वाली तथा वायु के आन्दोलन से वीणा आदि के नाद से भी अधिक मनोहर नाद का विस्तार करती, अति कोमल, पंचरगी तृण अंकुरों से ढकी हुई भूमि मानो देव क्रीड़ा के सुख स्पर्श से रोमांचित हुई हो इस तरह दिखती है । (६७-६८)
मरूत्कृतास्फालनेनोगिरद्भिः मधुरध्वनीन् । पंचवर्णेः मणिभिरप्यसौकीर्णः सुगन्धिभिः ॥६६॥
वहां का भू प्रदेश वायु के फुफकार से मधुर ध्वनि करती पंचवर्ण के सुगंधिमणियों से भी व्याप्त है (६६)
न वरं विपिनेऽन्तःस्थे न स्यात्तृणमणिध्वनिः ।
वेदिकोन्नतिरूद्धस्य तादृग वायोरसंगतेः ॥७०॥ विशेष इतना है कि वेदिका ऊँची होने के कारण वायु रुक जाय, वहां संचार न होने के कारण से अन्दर के बगीचे में तृण या मणि की ध्वनि नहीं होती । (७०)
बनयोरेतयोश्चित्रकरयोः स्युः पदे पदे । पुष्करिण्योदीर्घिकाश्च महासरोवराणि च ॥७१॥