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________________ ( १४६ ) पंद्रहवां सर्गः उज्जिजीव जरासंघजराजर्जरितं जवात् । यतो यदुबलं सोऽस्तु पीयूष प्रतिमः श्रिये ॥१॥ जरासंघ द्वारा छोड़ी गई जरा नाम की विद्या से जर्जरित हुए यादवों की सैना को जिन्होंने शीघ्रमेव सजीवन किया था। ऐसे अमृत सम्पन्न श्री पार्श्वनाथ भगवान सबका कल्याण करते हैं । (१) तिर्यग्लोकस्य स्वरूपमथ किंचिद्वितन्यते । मया श्री कीर्ति विजयार्णव प्राप्त श्रुतश्रिया ॥ २ ॥ - . श्री गुरुवर्य कीर्ति विजय के पास से ज्ञान रूपी लक्ष्मी प्राप्त की है, वह मैं अब तिरछे लोक का थोड़ा सा स्वरूप कहता हूँ । (२) तत्र च - तिर्यग्लोक वर्त्तिनोऽपि योजनानां शतानव । धर्मापिंड स्थिता आद्यास्तद्वर्णन प्रसंगतः ॥ ३ ॥ उक्ता अधोलोक एव तत्रस्था व्यन्तरा अपि । रत्नप्रभोपरितलं वर्णयाम्यथ तत्र च ॥४॥ सन्ति तिर्यगसंख्येयमाना द्वीपपयो धयः । सार्धोद्धाराम्भोधि युग्म समयैः प्रमिताश्चते ॥५॥ विशेषकं । धर्मा नरक की मोटाई के पहले नौ सौ योजन तिरछा लोक में आते हैं, फिर भी उसके वर्णन के प्रसंग पर और वहां रहे व्यन्तरों का भी अधोलोक में ही वर्णन किया है । अब इस रत्नप्रभा नरक के ऊपर के तल का वर्णन करता हूँ । वहां तिरछा लोक में असंख्यात द्वीप समुद्र आये हैं उनकी संख्यानुसार अढाई उद्धार सागरोपम जितना समय होता है । ( ३-५) तत्र जम्बूद्वीप नामा प्रथमोमयतः स्थितः । लवर्णाब्धिस्तमावेष्टयावस्थितो वलयाकृतिः ॥६॥ वहा मध्यभाग में प्रथम जम्बू द्वीप नामक द्वीप रहा है, इसके आस-पास वलयाकार लवणसमुद्र आया है। (६) तमावेष्टय पुनद्वपो धातकीखंड संज्ञकः । तमप्यावेष्टय परितः स्थितः कालोदवारिधिः ॥७॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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