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(१४५) विश्वाश्चर्यदकीर्तिकीर्तिविजय श्रीवाचकेन्द्रातिष द्रोब्ज श्री तनयोऽतनिष्ठ विनयः तेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चित् जगत्तत्व प्रदीपोपमें, सर्गश्चारूतम श्चतुर्दशतमोऽपूर्वःसमाप्तःसुखम् ॥३२६॥
- इति चतुर्दशः सर्गः - सम्पूर्ण विश्व को आश्चर्य चकित कर देने वाली कीर्ति वाले श्री कीर्तिविजय वाचक वर्य के अन्तेवासी शिष्य तथा पिता तेजपाल और माता राजश्री के सुपुत्र विनय विजय उपाध्याय ने जगत के निश्चत तत्वों को दीपक के समान प्रकाश में लाने के लिए रचित ग्रन्थ का यह अपूर्व मनोहर चौदहवां सर्ग विघ्नरहित सम्पूर्ण हुआ (३२६)
- चौदहवां सर्ग समाप्त -