________________
(१४४)
वह इस प्रकार से - पूर्व जन्म में शरीर का दाह, या शरीर आदि कुछ भी न हुआ हो, और मृत्यु हो गयी हो, इसका जीव नरक में उत्पन्न हुआ हो तो उत्पत्ति समय में वह अतिशय पीड़ित नहीं होता, क्योंकि उसे उस समय पूर्व जन्म सम्बन्ध या क्षेत्रादिजन्य दुःख नहीं होता इससे उसे शांति ही होती है । (३२२-३२३)
पूर्वमित्रं सुरः कश्चिद्यथा कृष्णस्य सात्वतः । । करोति पीडोपशमं तदामी देवकर्मणा ॥३२४॥ .. कियत्कालं सुखं किंचिल्लभन्तेऽथततः परम् ।
क्षेत्राद्यन्यतरा पीडा तेषां प्रादुर्भवेधुवम् ॥३२५॥ .
कृष्ण महाराज की जिस तरह बलराम ने पीड़ा उपशम की थी, वैसे ही कोई मित्र देवता आकर नारक की पीड़ा उपशम करके शान्ति देते हैं, वह देव कर्म कहलाता है । उस समय तो कुछ काल उस नारक जीव को थोड़ा सुख होता है । परन्तु बाद में उसे अन्य क्षेत्रादि जन्य पीड़ा प्रादुर्भूत होती ही है । (३२४-३२५)
सम्यक्त्वलाभे प्रथम चक्षुर्लाभे इवान्धलाः । ततः परं चाहदादि गुणानामनुमोदनात् ॥३२६॥ एवमध्यवसायेन सुखमासादयन्त्यमी ।। अपेक्ष्य जिन जन्मादि साप्तकर्मोदयेन वा ॥३२७॥ युग्मं ॥
समकित प्राप्त हो तब, और फिर जिनेश्वर आदि के गुणो की अनुमोदना से, इसी तरह अध्यवसाय के कारण, अथवा जिनेश्वर प्रभु के जन्मादि पंच कल्याणक समय, या साताकर्म के उदय से इस नारकजीवं, अंध को आंखे मिलें वैसे सुख का अनुभव करता है । (३२६-३२७)
कतिचिदिति चिदुच्चा नारकाः तारकाणा मुचितमनु सरन्तः तीर्थ कृन्नाम कर्म । सुकुलजनिमवाप्य प्राप्तचारित्रचर्याः . जिनप्रतिपदभाजः प्राप्नुयुः मोक्षलक्ष्मीम् ॥३२८॥
इस तरह कोई-कोई उच्च ज्ञान वाले नारक जीव तारक अर्थात् संसार से तारने वाले श्री जिनेश्वर प्रभु के योग्य रूप में अनुकरण करते तीर्थंकर नामकर्म उपर्जन करता है, और वहां से उत्तम कुल में जन्म लेकर चारित्र ग्रहण कर तीर्थंकर पद प्राप्त कर मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त करता है । (३२८)