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अन्यत्र भी कहा है कि महा आरंभ और महापरिग्रह में रक्त और रौद्र ध्यानी जीव नरक का आयुष्य बंधन करता है । स्थानांग सूत्र भी कहा है कि जीव चार स्थानक के कारण नरक का आयुष्य बंधन करता है । वह इस प्रकार - महाआरंभ के कारण, महा परिग्रह के कारण, मांसाहार के कारण और पंचेन्द्रिय जीवं के घात के कारण होता है।
अहर्निशं नारकाणां दुःखमायुःक्षयावधि । पीडाभिः पच्यमानानां प्राग्भूरीकृतपाप्मनाम् ॥३१८॥
पूर्व में जिसने बहुत पाप किये है दुःख में और रौद्धध्यान करते हुए नारक के जीवन तक दिनरात वेदना सहन करते है (३१८)
तथोक्तं जीवभिगमे - .
अच्छि निभीलण मित्तं नत्थि सुहं दुख्ख मेव अणुबद्धम् । नरए नेरइयाणं अहो निसं पच्चमाणाणाम् ॥१६॥
इस विषय में जीवाभिगम सूत्र में उल्लेख है कि दिन रात दुःख में डूबे रहते नारकी के जीव में निमेष मात्र भी सुख नहीं है, वहां दुःख की परंपरा ही है । (३१६)
कदाचिदेव यत्सौख्यमल्प कालं तदल्पकम् । . उपपातादिभिः वक्ष्यमाणैः भवति हेतुभिः ॥३२०॥
कभी किसी उपपात आदि हेतुओं के कारण नारक को सुख होता है, तो वह स्वल्प ही होता है और स्वल्प काल ही टिकता है । (३२०)
तथोक्तम् - उववाएण वसायं नेरइया देवकम्मुणा वावि । अझवसाण निमित्तं अहवा कम्माणु भावेण ॥३२१॥
ऐसा उल्लेख है कि १- उत्पत्ति समय या २- किसी देव प्रयोग से अथवा ३- किसी अध्यवसाय के कारण या ४- कर्म के अनुभाव से नारक किसी समय शान्ति का अनुभव करता है । (३२१) तथाहि - विनांगदाह छेदादि मृतो यः पूर्वजन्मनि ।
नारको नातिपीडात उत्पद्येतास्य तत्क्षणे ॥३२२॥ न प्राग्भवानुसम्बन्धं नापि क्षेत्रादिसम्भवम् । असातं सातमित्यस्योपपातसमये भवेत् ॥३२३॥