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________________ (१४२) के पुण्य का संचय हो तो वह उपरोक्त लब्धि प्राप्त कर सकता है । अन्य नारक को ऐसी लब्धि नहीं मिल सकती है । (३१२) ये स्युः तीर्थंकरास्तेऽपि प्राग्बद्ध नरकायुषः । पश्चात्तद्वेतुभिः बद्धतीर्थकृन्नामकर्मकाः ॥३१३॥ . ततो बद्धायुष्कतयाऽनुभूय नारका स्थितिम् । ..... उदृत्य नारकेभ्यः स्युरर्हन्तः श्रेणिकादिवत् ॥३१४॥ जो तीर्थंकर होते हैं, उन्होंने भी प्रथम नरक का आयुष्य बंधन किया होता है परन्तु पीछे से कोई ऐसे अवर्ण्य हेतु को लेकर उन्होंने तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन किया होता है । इससे पूर्वबद्ध आयुष्यत्व के कारण नरकत्व अनुभव करके वहां से उत्पन्न होकर श्रेणिक आदि के समान तीर्थंकर होते हैं । (३१३-३१४). गर्भजेषु नृतिर्यक्षुत्पद्यन्ते संख्य जीविषु । षड्भ्यः ताद्दशतिर्यक्षु सप्तम्या निर्गताः परम ॥३१५॥ छः नरक से उत्पन्न हुआ जीव, संख्यात आयुष्य वाले गर्भज मनुष्य में, व तिर्यंच में उत्पन्न होता है । परन्तु सातवीं नरक में आया हुआ वह तिर्यंच में ही उत्पन्न होता है । (३१५) किंच - . सर्वास्वपि क्षितिष्वासु नारकाः केचनानाधाः । नवीनमपि सम्यक्त्वं लभन्ते कर्मलाघवात् ॥३१६॥ तथा सर्व नारकों में यदि कोई अनघ-अल्प पाप वाला होता है, उसके कर्म लघु होते हैं तो वह नया सम्यक्त्व भी प्राप्त करता है । (३१६) पंचेन्द्रियवंधैः मांसाहारैः महापरिग्रहै । . महारंभैश्च बघ्नन्ति नरकायुः शरीरिणः ॥३१७॥ प्राणी नारक का आयुष्य बंधन करता है । वह पंचेन्द्रिय के बंधन से अथवा मांसाहार, महापरिग्रहि या महा आरंभ को लेकर बंधन करता है ।। (३१७) . तथोक्तम् - बंधई नरयाउ महारंभ परिग्गहरओ रूद्दो ॥ स्थानांगेऽपि चउहिं॥ ठाणेहिं जीवा नेरइयाउयत्ताए कम्मं पकरेंति । तंमहारंभयाए महा परिग्गहाए कुणिमाहारेणं पंचेंदियवहेणं ॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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