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नरक तक जाता है और वज्र ऋषभ नाराच संघयण वाले सातवी नरक में ही जाते हैं अन्य नरक में नहीं जाते । यहां जो कहा है, जो नरक में जानेवाला है, उनकी उत्कृष्ट गति है । (३०३-३०६)
आधक्ष्माद्यंप्रतरे सर्वषां सा जघन्यतः । जघन्योत्कृष्टयोर्मध्ये मध्यागतिरनेकधा ॥३०७॥
प्रथम नरक के प्रथम प्रतर के सर्व नारको की जघन्य गति है । परन्तु जघन्य और उत्कृष्ट के बीच मध्यम गति है, वह अनेक प्रकार की है । (३०७)
आद्याया एव चोद्धता भवन्ति चक्रवर्तिनः । पृथिवीभ्यो न शेषाभ्यस्तथा भवस्वभावतः ॥३०८॥
पहली नरक में से उत्पन्न हुआ जीव चक्रवर्ती हो सकता है । अन्य किसी नरक में से नहीं होता, क्योंकि ऐसा भव स्वभाव है । (३०८)
एवमाद्यद्वयादेव बलदेवार्द्ध चक्रि णौ ।
आद्यत्रयादेव तीर्थंकरा नान्त्यचतुष्टयात् ॥३०६॥
बलदेव अथवा वासुदेव प्रथम दो नरक में से उत्पन्न हो सकता है और प्रथम तीन नरक में से ही तीर्थंकर उत्पन्न हो सकते हैं। अन्य चार नरक में से उत्पन्न नहीं हो सकते हैं । (३०६) .
उद्वृत्ताः स्युः केवलिनः आद्यपृथ्वी चतुष्टयात् ।
अन्त्यत्रयागतानां तु कैवल्यं नैव संभवेत् ॥३१०॥
प्रथमं से चार नरक में से उत्पन्न होकर केवल ज्ञानी हो सकता है । आखिर तीन में से आये हुए जीव को केवल ज्ञान होना संभव नहीं है । (३१०)
चारित्रिणो भवन्त्याद्यपंचकादाद्यषट्वतः । उद्वृत्ताः देश विरताः स्युः सप्तभ्योऽपि सद्दशः ॥३११॥
प्रथम पांच नरक में से उत्पन्न हुआ चारित्र के योग्य हो सकता है, पहले से छः तक से उत्पन्न हुआ विरति स्वीकार कर सकता है, और समकित तो सातों नरकों में से उत्पन्न हुआ प्राप्त कर सकता है । (३११)
एताश्च लब्धीः प्राक्क्लुप्त पुण्यौघा नरकेषु तु । प्राग्वद्धायुर्वशोत्पन्ना लभन्ते नान्य नारकाः ॥३१२॥ पूर्व में नरक आयुष्य बन्धन किया हो, नरक में से आया हो, फिर भी पूर्व