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(१४०) उत्पद्यमानाश्चैतेऽत्र प्राग्जन्म बोधिमांद्यतः । अपर्याप्तत्वे लभन्ते ह्यव्यक्तमपि नावधिम् ॥३००॥
वे वहां उत्पन्न होते हैं तब वे पूर्वजन्म में ज्ञान की मंदता के कारण अपर्याप्तपने में अव्यकत अवधिज्ञान भी नहीं प्राप्त करते हैं । (३००)
तथाह जीवाभिगमे - "नेरइया अच्छे गइया दु अन्नाणि अच्छे गइयाति अन्नाणि ॥"
इस विषय में जीवाभिगम सूत्र में इस तरह उल्लेख मिलता है - 'कई नारकों को दो अज्ञान और कई को अज्ञान होता है।'
द्वितीयामेव यावच्च गर्भजाताः सरीसृपाः । . . . तृतीयावधि गच्छन्ति गृध्राद्या पापपक्षिणः ॥३०१॥ क्ष्मा चतुर्थीमेव यावत्सिंहादयश्चतुष्पदाः । .. तथोरः परिसर्पाः तां पंचमी यावदेव च ॥३०२॥ स्त्रियः षष्ठीमेव यावधानित यावत्तमस्तमाम । नरा महारम्भ मग्ना मत्स्याद्यश्च जलांगिनः ॥३०३॥
गर्भज, भुजंग परि सर्प दूसरे नरक तक जाता है गिद्ध आदि पापी पक्षी तीसरी नरक तक जाता है । सिंह आदि चार पैर वाले प्राणी चौथी नरक तक जाते हैं और उर:परि सर्प अर्थात् पेट द्वारा चलने वाले पांचवी नरक तक जाते हैं । स्त्रियां छठी नरक तक जाती हैं । महा आरंभ, संभारंभ करने में निमग्न रहने वाला मनुष्य तथा मछली आदि जलचर जीव सातवीं नरक तक जाते हैं । (३०१-३०३)
ससेवात संहनना आद्यपृथ्वी द्वयावधि । यान्ति यावतृतीयां च कीलिकांचितभूधनाः ॥३०४॥ सार्ध नाराचाश्चतुर्थी सनारा चाश्च पंचमीम् । षष्ठी यावत्सऋषभनाराचा अथ सप्तमीम् ॥३०॥
सवर्षभनाराचा एव गच्छन्ति नापरे । • नरके गच्छतामेषामेषोत्कर्षाद्भवेद् गति ॥३०६॥
सेवात सहनन (संघयण) वाले प्रथम दो नरक तक जाते हैं और कीलिका संहनन वाले तीसरी नरक तक जाते हैं, अर्द्ध नाराच संघयण वाले चौथी नरक तक, नाराच संघयण वाले पांचती नरक तक जाते हैं । ऋषभ नाराच संघयण छठी