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________________ (१३६) इनका देहमान स्वाभाविक रूप में दो हजार हाथ का होता है, और कृत्रिम इससे दोगुना हो सकता है । (२६३) द्वाविंशतिः जलधयः स्थितिरत्र जघन्यतः । उत्कर्षतस्तु सम्पूर्णाः त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः ॥२६४॥ यहां आयुष्य स्थिति जघन्य, अर्थात् कम से कम बाईस सागरोपम की है, और उत्कृष्ट, अधिक से अधिक सम्पूर्ण तैंतीस सागरोपम की है । (२६४) नारकोद्वर्तनोत्पत्ति विरहोऽत्र जघन्यतः । समयं यावदुत्कर्षात् षण्मासावधिराहिताः ॥२६५।। यहां नारकों के च्यवन और उत्पत्ति के बीच का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्षतः छह महीने का है । (२६५) गव्यूतं च तदर्ध चोत्कर्षाजघन्यतः क्रमात् । अवधेविषयः प्रोक्तो जिनैः दृष्टजगत्रयैः ॥२६६॥ तीन जगत को हस्तामलक समान देखने वाले श्री जिनेश्वर भगवान् ने इस नारक को अवधि ज्ञान के विषय से जघन्यतः आधे कोश का और उत्कर्षतः एक कोश का कहा है । (२६६). . अथासु येषां जीवानां यैश्च संहननैर्गतिः । लब्धिश्चाभ्यो निर्गतानां या स्यात्तसर्वमुच्यते ॥२६७॥ अब कौन से जीव किस-किस संघयण के हैं ? इन नरक पृथ्वियों में आकर उत्पन्न होते हैं तथा यहां से निकल कर फिर वे कौन सी लब्धि प्राप्त करते हैं । इथ्यादि सर्व विषय में कुछ कहते हैं । (२६७) संमूर्छिमा हि तिर्यंच उत्कर्षात् प्रथमां क्षितिम् । यावदुत्पद्यन्त एत न द्वितीयादिषु ध्रुवम् ॥२६८॥ संमूर्छिम तिर्यंच, उत्कर्षतः प्रथम नरक तक उत्पन्न होता है दूसरी किसी में भी उत्पन्न नहीं है । (२६८ ) तत्राप्येषां दशाब्दानां सहस्राणि स्थितिः लघः । ज्येष्ठा पल्यासंख्यभागोभवेन्नातः परा पुनः ॥२६६॥ वहां उनका स्थिति काल, जघन्यत: दस हजार वर्ष का होता है और उत्कर्षतः पल्योपम के असंख्यवे भाग के जितना होता है इससे अधिक नहीं होता । (२६६)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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