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________________ ( १३६ ) तथोक्तमं जीवाभिगमे “छठ्ठसत्तमासु णं पुढवीसु नेरइयां महंताइ लोहिय कुंथु रुवाईं वयर मय तुंडाइ गोमय कीडसमाणाइं विउव्वित्ता अन्न मन्न स्स कायं समतुरंगे माणां २ खाए माणा २ समयपोरा किमिया इव दालेमाणा २ अन्तो अणुपवि समाणा वे यणं उइति । अत्र समतुरंगे माणा २ इति समतुरंगायमाणा अश्वा इव अन्योन्यमारोहन्त इत्यर्थः समपोरा किमियत्ति शतपर्वकृमयः इक्षुकृमयः ॥ " - इस सम्बन्ध में जीवा भिगम सूत्र में इस तरह उल्लेख मिलता है. छठी और सातवीं नरक पृथ्वी में नारक बड़े रक्त वर्ण वाले और वज्र समान मुखवाले, गोबर के कीड़े समान कुंथु जैसा रूप लेकर एक दूसरे के शरीर पर घोड़े के समान चढ़, चढ़ कर खाते है तथा गन्ना के कीड़े के समान खाते-खाते अन्दर गहरे प्रवेश करके वेदना उत्पन्न करते हैं । यहां 'समतुरंगमाणा' का अर्थ एक दूसरे को घोड़ा करके अर्थ लेना और 'सयपोहा किमिया' का शत पर्व गन्ना का कृमि- कीडा इस तरह अर्थ लेना चाहिए । प्रथमप्रस्तटे हस्ताः शतानि पंच भूघनम् । शतानि सप्त सार्द्धानि द्वितीय प्रस्तटे तनुः ॥ २७६ ॥ इस नरक के प्रथम में देहमान पांच सौ हाथ का है दूसरे प्रतर में सात सौ पचास हाथ है । (२७६) सहस्त्रं पाणयः पूर्णाः तृतीय प्रस्तटे वपुः । स्थिति: जघन्या प्रथमे स्यात् सप्तदश वार्द्धयः ॥ २७७ ॥ त्रिभागीकृ तपाथोधेः भागद्वयसमन्विताः । उत्कर्षतः स्थितिश्चाद्यप्रस्तटे ऽष्टादशाब्धयः ॥२७८॥ तीसरे प्रतर में सम्पूर्ण एक हजार हाथ हैं और आयुष्य की स्थिति पहले प्रतर में जघन्य, सत्रह पूर्णांक दो तृतीयांश सागरोपम सद्दश है, और उत्कर्ष के अठारह सागरोपम की है । (२७७-२७८) • द्वितीये लघुरेषैव ज्येष्ठा विंशतिरब्धयः । वार्द्धेस्त्रिधा खंडितस्य भागेनैकेनसंयुताः ॥२७६॥ इयमेव जघन्येनं तृतीयप्रस्तटेस्थितिः । उत्कर्षतश्च सम्पूर्णा द्वाविंशतिपयोधयः ॥ २८० ॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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