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दिश्यपंक्तिषु चत्वारः चत्वारः नरकालयाः । त्रयः त्रयः विदिक्ष्वेवमेकोनत्रिंशदादिमे ॥२६६॥
चार दिशाओं के चार-चार होने से सोलह और चार विदिशाओं के तीन-तीन होने से बारह है । दोनों को मिलाकर अट्ठाईस तथा एक नरकेन्द्र को मिलाकर कुल उन्तीस आवास प्रथम प्रतर में होते हैं । (२६६)
द्वितीयादिषु चैकैकहीना अष्टापि पंक्तयः । एवं द्वितीय प्रतरे पांक्तेया एक विंशतिः ॥२७०॥ त्रयोदश तृतीये स्युः त्रिषष्टिः सर्व संख्यया । मघायां पंक्तिनरकाः शेषाः पुष्पावकीर्णक्राः ॥२७१॥ सहस्रा नवनवतिः शतानि नव चोपरि । द्वात्रिशदिति सर्वांगं लक्षं पंचोनमाहिताः ॥२७२॥ विशेषकं ।
दूसरे और उसके बाद तीसरे प्रतर में आठ पंक्तियां हैं । उसमें एक-एक कम आवास वाली है। इस कारण से दूसरे प्रतर में इक्कीस और तीसरे में तेरह पंक्तिगत नरकावास है। इस तरह तीनों प्रतर वाली इस नरक में कुल तिरसठ पंक्तिगत नरकावास होते हैं और दूसरे पुष्पावकीर्ण आवास हैं । उसकी संख्या निन्नानवें हजार नौ सौ बत्तीस है । अत: इस नरक में कुल नरकावास निन्नानवें हजार नौ सौ पंचानवे होते हैं - एक लाख में पांच कम होते है । (२७०-२७२)
द्वेधात्र वेदना किन्तु शीतैव क्षेत्रवेदना । मिथः कृता वेदनाश्च विना प्रहरणैरिह ॥२७३॥ मघामाघवती जाताः शस्त्राणि न हि नारकाः।' विकुर्वितुं शक्नुवन्ति तथा भवस्वभावतः ॥२७४॥ ततः प्रहरणाभावात् मिथोऽङ्गेषु प्रवेशितैः । वजतुंडकुंथुरूपैः पीडयन्ति विकुर्वितैः ॥२७५॥
यहां दो प्रकार की वेदना होती है १- क्षेत्र वेदना और २- परस्परकृत वेदना । इसमें क्षेत्र वेदना यहां शीतल ही है और दूसरी परस्पर कृत है वह प्रहरण अर्थात् शस्त्र बिना भी है क्योंकि मघा और मघावती नारक जीव में शस्त्र बनाने की शक्ति नहीं है क्योंकि उनका भव स्वभाव है इसलिए उनके पास शस्त्र नहीं है। ये वज्र के मुख वाले कुंथु रूप करके एक दूसरे के शरीर में प्रवेश करके पीड़ा करते हैं । (२७३-२७५)