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________________ (१३३) एषा लघुश्चतुर्थे स्यादुत्कृष्टात्र स्थितिः पुनः । त्रिभिः पूर्वोदितैर्भागैर्युताः पंचदशाब्धयः ॥२५६॥ . पंचमें शत्रयोप्रेता लघुः पंचदशाब्धयः । उत्कृष्टा च सप्तदश संपूर्णा जलराशयः ॥२५७॥ . तीसरे प्रतर में उतनी ही अर्थात् चार पूर्णांक चार पंचमाश सागरोपम की जघन्य स्थिति है । उत्कृष्ट स्थिति चौदह पूर्णांक एक पंचमाश सागरोपम की है। चौथे प्रस्तर में उतनी ही जघन्य स्थिति है और पंद्रह पूर्णांक तीन पंचमांश सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है । पांचवे प्रस्तर में पंद्रह पूर्णांक तीन पंचमांश सागरोपम की जघन्य है और सम्पूर्ण सत्रह सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है । (२५४-२५७) के षांचिदाद्यप्रतरे नाराकाणां भवेदिह ।। नील लेश्या तदुत्कर्षादप्यस्याः स्थितिराहिता ॥२५८॥ पल्योपमासंख्यभागाधिका दशपयोधयः । ततोऽधिकास्थितीनां तु तेषां कृष्णैव केवलम् ॥२५६॥ युग्मं । अब लेश्या विषय में कहते हैं - प्रथम प्रतर में कईयों की नील लेश्या होती है। क्योंकि नील लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति भी दस सागरोपम और एक पल्योपम के असंख्यवे भाग रूप कही है । अतः इससे अधिक जिसकी स्थिति हो उसकी तो के वल कृष्णं लेश्या होती है । (२५८-२५६) गव्यूतद्वयमुत्कृष्टो भवेदवधिगौचरः ।। जघन्यतस्तु गव्यूतं सार्द्धमुक्तोऽत्र पारगैः ॥२६०॥ इस नरक में अवधि ज्ञान का क्षेत्र उत्कृटतः दो कोश का होता है और कम से कम डेढ कोश का होता है । (२६०) च्यवनोत्पत्ति विरहो नारकाणां भवेदिह । मासयोर्द्वमुत्कर्षाज्जघन्या त्समयावधिः ॥२६१॥ इति धूम प्रभा पृथ्वी ॥५॥ इस नरक के जीवों का च्यवन और उत्पत्ति बीच का अंतर अधिक से अधिक दो महिने का है और कम से कम एक समय का है । (२६१) इस तरह धूम प्रभा पृथ्वी का स्वरूप कहा । (५)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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