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(१३२) हजार सात सौ पैंतीस होती हैं, अतः इस धूम प्रभा में सर्व मिलाकर कुल तीन लाख नरकावास होते हैं । (२४६-२४७) ... पंकप्रभाद्विज्ञेया द्विधा पीडात्र किन्त्विह ।
स्तोकेषु नरके पूष्णा शेषेषु शीतवेदना ॥२४८॥
यहां वेदना तो पंक प्रभा नरक समान दो प्रकार की है परन्तु यह वेदना थोड़े नरकावास में उष्ण होती है और अधिक में शीत होती है । (२४८)
कराणां द्विशती सार्हो प्रथमे प्रस्तटे तनुः । .. द्वितीये त्रिशती द्वादशेत्तराः द्वादशांगुलाः ॥२४६॥ हस्ताः तृतीये त्रिशती पंचसप्तति संयुता । . . सार्ध सप्तत्रिंशदाढया तुर्ये चतुःशती कराः ॥२५०॥ शतानि पंच हस्तानां पंचमे प्रस्तटे जिनैः ।। पंचमज्ञानपटुभिः तनुमानं निरूपितम् ॥२५१।।
अब नारक जीवों के देहमान के विषय में कहते हैं - प्रथम प्रतर में उनका देहमान दो सौ पचास हाथ है, दूसरे प्रतर में तीन सौ बारह हाथ बारह अंगुल है, तीसरे में तीन सौ पचहत्तर हाथ, चौथे में चार सौ साढे सैंतीस हाथ और पांचवे प्रतर में पांच सौ हाथ होता है । इस तरह पंचम ज्ञान में कुशल-केवल ज्ञानी श्री जिनेश्वर भगवान के वचन है । (२४६-२५१)
दशाब्धयो जघन्येन प्रथम प्रस्तटे स्थितिः । उत्कृष्टा च पंचभागीकृतस्य जलधेः किल ॥२५२॥ युक्ता द्वाभ्यां विभागाभ्यामेकादश पयोधयः । एषैव च जघन्येन द्वितीय प्रस्तटे भवेत् ॥२५३॥ युग्मं ।
अब इन जीवों का आयुष्य विषय कहते हैं - प्रथम प्रतर में जघन्य दस सागरोपम आयु स्थिति है और उत्कृष्ट ग्यारह पूर्णांक दो पंचमांश सागरोपम की है । इतनी ही दूसरे प्रस्तर में जघन्य स्थिति है, और उत्कृष्ट बारह पूर्णांक चार पंचमांश सागरोपम की है।
ज्येष्टा चात्र युता भागैश्चतुर्भिद्वादशब्धयः । इयमेव जघन्येन तृतीयप्रतरे स्थितिः ॥२५४॥ उत्कर्षतस्तृतीये च स्युः चर्तुदश वार्द्धयः । ' पंचभागी कृतस्याब्धेः भागेनेकेत्र संयुक्ताः ॥२५५॥