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प्रत्येक पच्चीस हजार दो सौ पचास योजन के अन्तर में आते हैं । (२३६-२४०)
तेषु प्रत्येकमेकैकः कथितो नरके न्द्रकः ।
खातः तमः भ्रमः चान्धः तथांधतमसोऽपि च ॥२४१॥ .
प्रत्येक प्रतर में एक-एक नरकेन्द्र है । अर्थात् पांच प्रतर के नाम १- खात, २- तमस्, ३- भ्रम, ४- अन्ध और ५- अन्ध तमस है । (२४१)
प्रति प्रतरमेभ्यश्च निर्गता अष्टपंक्तयः ।
चतस्त्रो दिग्गता:तद्वत् चतस्त्रस्युविदिग्गता ॥२४२॥
इस पांच प्रतरों में प्रत्येक की आठ-आठ पंक्तियां निकलती हैं उसमें चार दिशा गत है और विदिशा गत चार है । (२४२).
दिक्पंक्तिषु नव नव भवन्ति नरकाश्रयाः ।
परा स्वष्टाष्टसर्वांग्रमाद्ये एकोनसप्ततिः ॥२४३॥
दिग्गत पंक्तियों में नौ-नौ नरकावास है और विदिशागत पंक्तियों में आठ आठ नरकावास है । अतः कुल मिलाकर इस धूमप्रभा के प्रथम प्रतर में उनहत्तर नरकवास होते हैं । (२४३) . . ___ प्रतिप्रतरमे कैक हीना अष्टापि पंक्तयः ।
ततो द्वितीये पांक्तयेया एकषष्टिः प्ररूपिताः ॥२४४॥ तृतीये च त्रिपंचाशत् तुरीये प्रस्तटे पुनः । पंचचत्वारिंशदेव सप्तत्रिंशच्च पंचमे ॥२४५॥
दूसरे और उसके बाद के प्रतर में प्रत्येक पंक्ति में एक-एक नरकावास कम होते जाते हैं । इस कारण से दूसरे प्रतर में पंक्तिगत नरकावास इकसठ हैं। तीसरे प्रतर में तिरपन है, चौथे प्रतर में पैंतालीस और पांचवे प्रतर में सैंतीस ही होते हैं । (२४४-२४५)
एवं पंक्तिगताः सर्वे द्विशती पंचषष्टियुक् । शेषाः पुष्पावकीर्णास्तु लक्षयोर्द्वितयं तथा ॥२४६।। सहस्रा नवनवतिः शतानि सप्त चोपरि । पंच त्रिंशदिति त्रीणि लक्षाणि सर्व संख्यया ॥२४७॥ युग्मं ।।
इस तरह सर्व प्रतर में मिलाकर दो सौ पैंसठ पंक्तिगत नरकावास होते हैं । और दूसरा पुष्पावकीर्ण नरकवास भी है, और उनकी संख्या दो लाख निन्नानवे