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________________ (१२४) .. . स्थितिः कापोतलेश्याया भवेदुत्कर्षतोऽपि यत् । पल्योपमासंख्यभागाभ्यधिकं सागरत्रयम् ॥१६६॥ द्वितीयादिप्रस्तटे तु जघन्यापि न सा स्थितिः । तदाद्य एव प्रतरे कापोत्यस्यामिति स्थितम् ॥१६७॥ कापोत लेश्या की भी उत्कर्षतः स्थिति तीन सागरोपम और पल्योपम का असंख्यात्वा भाग है और दूसरे तथा उसके बाद के प्रतर में.तो जघन्य से भी उतनी स्थिति नहीं है, इसलिए इस नरक में प्रथम प्रतर में ही कापोत लेश्या है । इस प्रकार निश्चय हुआ । (१६६-१६७) तत्रापि पल्यासंख्यांशाधिकाम्भोधित्रयावधिः । ... विभ्रतामायुरेषा स्यान्नीलैवातोऽधिकायुषाम् ॥ और इसमें भी जिसका आयुष्य तीन. सागरोपम के ऊपर पल्यापम के असंख्यातवां भाग है उसकी ही कापोत लेश्या है । इससे अधिक आयुष्य की स्थिति वाले को नील लेश्या ही होती है । (१६८) . . सजातीयापि लेश्या स्यादयोऽनुक्रमादिह । क्लिष्टा क्लिष्टतरा क्लिष्टतमा सर्वासु भूमिषु ॥१६६॥ यह सजातीय लेश्या भी नीचे से नीचे सर्व पृथ्वी में अनुक्रम से क्लिष्ट, अधिक क्लिष्ट और अतिशय क्लिष्ट - भारी होता है । (१६६) उत्कर्षतोऽवधिक्षेत्रं गव्यूतत्रयमत्र च । । जघन्यततश्च गव्यूतद्वयं सार्द्ध तदाहितम् ॥२००॥ .. इस बालुका पृथ्वी में अवधि ज्ञान का क्षेत्र उत्कृष्ट रूप में तीन कोश का है और जघन्य रूप में अढ़ाई कोश का है । (२००) अत्रोत्पत्तिच्यवनयोरन्तरं परमं भवेत् । दिनानि पंचदश तज्जघन्यं समयात्मकम् ॥२०१॥ तथा उत्पत्ति और च्यवन के बीच में अन्तर उत्कर्षतः पंद्रह दिन का है और जघन्य से एक समय मात्र का कहा है । (२०१) इति बालुका प्रभा पृथिवी ॥३॥ इस तरह से बालुका प्रभा नाम की नरक पृथ्वी का स्वरूप कहा है । (३) (२०१)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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