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________________ (१२३). भाग त्रयान्वितं तुर्ये जघन्याब्धि चतुष्टयम् । उत्कर्षतः सप्त भाग युक्तमब्धि चतुष्टयम् ॥१८६॥ चौथे प्रतर में जघन्यतः चार पूर्णांक एक तृतीयांश सागरोपम की स्थिति है और उत्कृष्ट चार पूर्णांक सात नवमांश सागरोपम की है । (१८६) . एषैव प्रतरे लघ्वी पंचमे परिकीर्तिता । उत्कर्षतो द्विभागाढ्या प्रज्ञप्ता पंचसागरी ॥१६०॥ पांचवे प्रतर में जघन्य से चार पूर्णांक सात नवमांश सागरोपम की है और उत्कृष्ट से पांच पूर्णांक दो नवमांश सागरोपम की है । (१६०) षष्ठे जघन्यतः पंच पारावारी द्विभागयुक् । उत्कर्षतः पंच पारावारी षड् भाग संयुता ॥१६१॥ छठे प्रतर में जघन्य से पांच पूर्णांक दो नवमांश सागरोपम की स्थिति है और उत्कृष्ट रूप में पांच पूर्णांक छह नवमांश सागरोपम की है । (१६१) इयमेव जघन्या च सप्तम प्रतरे भवेत् । युक्तान्येकेन भागेन परमा सागराणि षट् ॥१६२॥ सातवें प्रतर में नारक की जघन्य स्थिति पांच पूर्णांक छह नवमांश सागरोपम की है और उत्कष्ट स्थिति छः पूर्णांक एक नवमांश सागरोपम की है । (१६२) सागराणि षडेकांश संयुक्तान्यष्टमे लघुः । उत्कृष्टा षट् सागराणि पंच भाग युतानि च ॥१६३॥ आठवें प्रतर में जघन्य स्थिति छह पूर्णांक एक नवमांश सागरोपम की है, जबकि उत्कृष्ट स्थिति छः पूर्णांक सागरोपम की है । (१६३) नवमे पंच भागाढया जघन्या षट्पयोधयः । उत्कर्षतः स्थितिश्चात्र संपूर्णाः सप्त सागराः ॥१६४॥ नौवें प्रतर में इनकी जघन्य स्थिति छह पूर्णांक पांच नवमांश सागरोपम की है और उनकी उत्कृष्ट स्थिति सम्पूर्ण सागरोपम की है । (१६४) प्रथम प्रतरे चात्र केषांचिन्नारकांगिनाम् । कापोत लेश्या सर्वेषु नीललेश्यापरेषु च ॥१६॥ अब नरकजीवों की लेश्या के विषय में कहते हैं - प्रथम प्रतर में नारकी जीवों की कापोत लेश्या होती है और अन्य सब प्रतरो में नील लेश्या होती है । (१६५)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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