________________
(१२२) . . तीसरे प्रतर में अट्ठहत्तर हाथ तीन अंगुल शरीर मान है जब कि चौथे में पचासी हाथ साढ़े बाईस अंगुल का है।
पंचमे च त्रिनवतिः करा: साष्टादशांगुलाः । एकोत्तरशतं षष्टेऽध्यर्द्धत्रयोदशांगुलाः ॥१८३॥
पांचवे प्रतर में नारको का तिरानवे हाथ अठारह अंगुल शरीरमान है और छठे में एक सो एक हाथ और साढे तेरह अंगुल है । (१८३) .....
नवोत्तरं शतं हस्ताः सप्तमे सनवांगुलाः । साांगुलचतुष्काढ्यं शतं सप्तदशोत्तरम् ॥१८४॥.
सातवें प्रतर में उनका शरीरमान एक सौ नौ हाथ और नौ अंगुल है और आठवें में एक सौ सत्तर हाथ साढ़े चार अंगुल है । (१८४) •
कराणामष्टमेज्ञेयं नवम प्रस्तटे तथा । शतं सपादं संपूर्ण द्विघ्नतूत्तर वैक्रियम् ॥१८५॥ .
नौवें प्रतर में सम्पूर्ण एक सौ पच्चीस हाथ का शरीर है, और उत्तर वैक्रिय शरीर सर्व का अपने-अपने शरीरमान से दुगुणा होता है । (१८५)
प्रथमेऽब्धित्रयं लघ्वी स्थितिरूत्कर्षतोऽम्बुधेः । नवभागी कृतस्यांशचतुष्काढयाः त्रयोऽर्णवाः ॥१८६॥
अब इस नरक की आयुष्य स्थिति के विषय में कहते हैं । पहले प्रतर में जघन्य स्थिति तीन सागरोपम की है और उत्कर्षतः तीन पूर्णांक चार नवमांश सागरोपम की है । (१८६)
एषैव च द्वितीये स्याज्जघन्या परमा पुनः । वार्द्धित्रयं प्रोक्तरूपैर्भागैरष्टभिरंचितम् ॥१८७॥
दूसरे प्रतर में जघन्य स्थिति तीन पूर्णांक चार नवमांश सागरोपम की है जबकि उत्कृष्ट स्थिति तीन पूर्णांक आठ नवमांश सागरोपम की है । (१८७)
तृतीये तु जघन्याब्धित्रयं भागैः सहाष्टभिः । उत्कर्षतस्त्रिभिर्भागैर्युक्तमब्धि चतुष्टयम् ॥१८८॥
तीसरे प्रतर में जघन्यतः तीन पूर्णांक आठ नवमांश सागरोपम की और उत्कृष्ट चार पूर्णांक एक तृतीयांश सागरोपम की स्थिति है । (१८८)