SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१२५) अथांजनाभिधा पृथ्वी चतुर्थीयं निरूप्यते । या प्रोक्ता पंकबाहुल्यात् पंकप्रभेति गोत्रतः ॥२०२॥ अब चौथी अंजना नाम की जो नरक पृथ्वी है, वहां पंक (कीचड़) की अधिकता होने से पंक प्रभा के नाम से जाना जाता है। उसका कथन करते हैं (२०२) सप्तयोजन विस्तीर्णमस्यां वलयमादिमम् । सपादपंच पादोनद्वयमाने क मात् परे ॥२०३॥ इसके तीन वलय में से प्रथम का विष्कंभ सात योजन का है दूसरा सवा पांच योजन का और तीसरा पौने दो योजन का है । (२०३) चतुर्दशभिरित्येवं संपूर्णै: नन योजनेः । पंक प्रभायाः पर्यन्तादलोकः परिकीर्तितः ॥२०४॥ इस प्रकार चौदह योजन में अंजना की अन्तिम सीमा आती है, और उसके बाद अलोक आता है । ऐसा ज्ञानियों ने कहा है । (२०४) लक्षं सहस्रर्विंशत्याधिकं बाहल्यमत्र च । मुक्त्वा सहस्रमेकै कं. प्राग्वदत्राप्युपर्यधः ॥२०५॥ मध्ये चाष्टादश सहस्राढय योजनलझके । भवन्ति प्रस्तटाः सप्त तेषां प्रत्येकमन्तरम् ॥२०६॥ युग्मं । योजनानां. सहस्राणि षोडशैकं तथा शतम् । सषट् षष्टि द्वौ त्रि भागौ योजनस्येति कीर्तितम ॥२०७॥ इस अंजना की एक लाख बीस हजार योजन प्रमाण मोटाई है यहां भी पूर्व के समान नीचे तथा ऊपर हजार-हजार योजन छोड़कर शेष एक लाख अठारह हजार योजन के मध्य में सात प्रतर हैं उनका परस्पर अन्तर सोलह हजार एक सौ छियासठ पूर्णांक दो तृतीयांश योजन होता है । (२०५-२०७) प्रतिप्रतरमे कैको भवेच्च नरके न्द्रकः । ते चामी गदिता आरनारौ मारस्तथापरः ॥२०८।। वर्चः तमः खाडखडः तथा खडखडाभिधः । प्रति प्रतरमेभ्यश्च प्राग्वदष्टाष्ट पंक्तयः ॥२०६॥ युग्मं । यहां भी प्रत्येक प्रतर में एक नरकेन्द्र है अर्थात् सात प्रतर के सात नरकेन्द्र होते हैं । उनके १- आर, २- नार, ३- मार, ४- वर्चस्, ५- तमस्, ६- खाडखड,
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy