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(११८)
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सागर द्वयमेकांशसंयुक्तं सप्तमे लघुः । त्रिभिरेका दशांशैश्च युक्तमब्धि द्वयं गुरुः ॥१५६॥
सातवें प्रतर में नारकों का स्थिति काल जघन्य से दो पूर्णांक एक ग्यारहांश और उत्कृष्ट दो पूर्णांक तीन ग्यारहांश सागरोपम का है । (१५६)
अष्टमे त विभिभागैः सहाब्धि द्वितयं लघुः । - अंचितं पंचभिर्भागैर्वारिधिद्वितयं गुरुः ॥१५७॥
आठवें प्रतर में नारकों का स्थितिकाल जघन्यतः दो पूर्णांक तीन ग्यारहांश सागरोपम का है और उत्कर्षत दो पूर्णांक पांच ग्यारहांश सागरोपम जानना । (१५७)
.नवमेऽल्पीयसी पंचभागाढयमम्बुधिद्वयम ।
पयोधिद्वितयं सप्तभागोपेतं. गरीयसी ॥१५॥
नौवें प्रतर में नारकों का स्थिति क़ाल जघन्यतः दो पूर्णांक पांच ग्यारहांश और उत्कृष्ट दो पूर्णांक सात ग्यारहांश सागरोपम का है । (१५८)
जघन्या दशमे सप्तभागाढयं सागरद्वयम् । उत्कृष्टा सागर द्वंद्वं भागैर्नवभिरन्वितम् ॥१५॥
दसवें प्रतर में नारको की स्थिति काल जघन्यतः दो पूर्णांक सात ग्यारहांश है और उत्कर्षतः दो पूर्णांक नौ ग्यारहांश सागरोपम का है । (१५६) ।
नवभागान्वितवार्धियमेकादशेलघुः । उत्कृष्टा च वारिधीनां सम्पूर्ण त्रितयं भवेत् ॥१६०॥
अन्तिम ग्यारहवें प्रतर में नारको का स्थिति काल जघन्यतः दो पूर्णांक नौ ग्यारहांश सागरोपम है और उत्कर्षतः सम्पूर्ण तीन सागरोपम है । (१६०)
प्राग्वत् लेश्या च कापोती ह्यवधेर्गोचरो गुरुः । गव्यूतानां त्रय सार्द्ध गव्यूत त्रितयं लघुः ॥१६१॥
इस नरक पृथ्वी में भी पूर्व के समान कापोत लेश्या होती है तथा अवधिज्ञान का विषय उत्कर्षतः साढ़े तीन कोश व जघन्यतः तीन कोश का होता है । (१६१)
नारक च्यवनोत्पत्तिविरहोऽत्र जघन्यतः । समयं यावदुष्कर्षात् दिनानि सप्त कीर्तितः ॥१६२॥
इति शर्करा प्रभा पृथिवी ॥२॥