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(१०४) इत्येवं विविधा तेषु वर्तते क्षेत्रवेदना । मिथ्यादृशां नारकाणां परस्परकृतापि सा ॥६४॥
इस तरह की नरक जीवों को नाना प्रकार की क्षेत्र वेदना का वर्णन किया तथा मिथ्यात्वी नारक को परस्पर कृत वेदना भी होती है । (६४)
तथाहि - दूरादन्योऽन्यमालोक्य श्वानः श्वानमिवा परम् । ते युद्धयन्ते संसरम्भं ज्वलन्तः क्रोधवह्निना ॥६५॥ ...
और वह इस प्रकार है जैसे कुत्ते जाति के दूर से ही एक दूसरे को देखकर लड़ने लगता है, वैसे ही नरक के जीव क्रोधग्नि से जलते परस्पर लड़ाई करते हैं । (६५)
विधाय वैक्रियं रूपं शस्त्रैः क्षेत्रानुभावजैः । पृथ्वी रूपै वैक्रियैर्वा कुन्तासितोमरादिभिः ॥६६॥ करांहिदन्ताघातैश्च ते निघ्नन्ति परस्परम् । . भूमौ लुठन्ति कृत्तांगाः शूनान्तर्महिषादिवत् ॥६७॥ युग्मं ।
वे वैक्रिय रूप धारण करके क्षेत्र प्रभावोत्पन्न 'पृथ्वीरूप अथवा वैक्रिय भाले, तलवार बाण आदि के द्वारा तथा हाथ पैर या दांत आदि से परस्पर प्रहार करते हैं और इसमें उनका शरीर छेदन भेदन हो जाता है । इससे कत्ल खाने में भैंस आदि जैसे लौटता है । वैसे पृथ्वी पर लोटने लगता है । (६६-६७)
परोदीरित दुःखानि सहन्ते नापरेषु ते । . उदीरयन्ति सम्यक्त्ववंतः तत्वविचारणात् ॥६८॥ अतः एव स्वल्प पीडाः स्वल्पकर्माण एव च । मिथ्यादृग्भ्यो नारकेभ्यो नारकाः शुद्धदृष्ट यः ॥१६॥
परन्तु इसमें जो समकित दृष्टि जीव होता है वह तो तत्व के चिन्तन वाला होता है इसलिए अन्यकृत दुःख सहन कर लेता है, परन्तु सामना करके स्वयं दुःख नहीं देता । इस कारण से ही वे मिथ्या दृष्टि नारक से कम दुःखी होते हैं और कर्मबन्धन भी कम करते हैं । (६८-६६)
मिथ्यादशस्तु क्रोधेनोदीरयन्तः परस्परम् । पीडाः कर्माण्यर्जयन्ति भूयांसि भूरिवेदनाः ॥७०॥