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(१०५) मिथ्यादृष्टि नरक जीव तो क्रोध करके अन्य को दुःख देता है और स्वयं भी दुःख सहन करता है और बहुत कर्मो को भी उर्पाजन करता है । (७०)
तथाहुः - नेरइआदुविहा।माइमिथ्यदिट्ठीउववणणगाअमाइ सम्म दिट्ठी उववण्णगा य । तथ्थणं जे से माइ माइ मिथ्यदिट्ठी सेणं महाकम्म तराए चेव जाव महावेयण तरा चेव ।तथ्थणंजे से अमाइसम्म दिट्ठी सेणं अप्प कम्मतराए चेव अप्पवेयण तराए चेव ॥ भगवती शतक १८ उद्देश ॥
इस सम्बन्ध में श्री भगवती सूत्र के अठारहे शतक पांचवे उद्देश में कहा है कि - नरकी दो प्रकार की है - १- माया युक्त मिथ्या दृष्टि वाला और २- माया रहित समकित दृष्टि वाला । इसमें प्रथम प्रकार का मिथ्या दृष्टि है वह भारी कर्मो वाला होता है तथा अत्यन्त वेदना भोगने वाला होता है जो दूसरे प्रकार है उनके कर्म अल्प होते हैं और वह वेदना भी अल्प भोगता है।
मनोदुःखापेक्षया तु सदशो भूरिवेदनाः ।। यदेते पूर्व कर्माणि सोचन्ति न तथा परे ॥१॥
मनो दुःख की अपेक्षा तो सम्यकदृष्टि नरकजीव बहुत दुःखी है क्योंकि पूर्व कर्मो का वह जितना सोच विचार करता है, वैसा सोच विचार अन्य को नहीं होता । (७१) . तथाहुः - तथ्थणं जेते सन्निभूया तेणं महावेअणा । तथ्थणं जेते असन्निभूया तेणं अप्पवेअणा ॥अत्र सन्निभूय इति ॥ संज्ञा सम्यक् दर्शनम् तद्वन्तो भूता: यद्वा पूर्व भवे संज्ञि पंचेन्द्रियाः सन्तः नारकप्राप्ताः ।अथवा संज्ञी भूता: पर्याप्त की भूताः।तद्वीपरीताः सर्वत्र असंज्ञी भूताः॥इति भगवती शतक १3०-२॥
इस सम्बन्ध में भी भगवती सूत्र में उल्लेख मिलता है वह इस प्रकार - जो संज्ञी है, इनको अत्यन्त दु:ख होता है, परन्तु जो असंज्ञी है उनको स्वल्प दुःख होता है । यहां संज्ञी अर्थात् १- संज्ञा वाला सम्यग् दर्शन वाला इस तरह अर्थ लेना अथवा २- पूर्व जन्म में जो संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव थे और फिर नरक में उत्पन्न हुए है इस तरह अर्थ करना ३- संज्ञी अर्थात् पर्याप्ता इस प्रकार का अर्थ लिया जाता है । इससे विपरीत सर्वत्र असंज्ञी समझना । (शतक १ उद्देश २)
इस प्रकार परस्पर कृत वेदना का वर्णन किया है । अब परमाधार्मिक कृत