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________________ (१०२) प्राप्नुवन्ति सुखं निद्रां निर्वातस्थानगा इव । अथोष्णकाले मध्याह्ने निरभ्रेवियदंगणे ॥५५॥ माघ महीने की रात्रि में शीत वायु चलती हो, उस समय हिमालय पर्वत पर बादल रहित आकाश में अग्नि बिना और वायु के व्याधि वाले नि:वस्त्र दरिद्री मनुष्य को जल के छिड़काव की ठंडी से जितनी वेदना हो उससे भी अनन्त गुना शीत वेदना इन नरक के जीवों को होती है। और यदि इन नरक जीवों को शीत वेदना वाले नरक में से उठाकर किसी मनुष्य की स्थान पर रखा जाय तो वह मानो किसी हवा रहित स्थान पर रहा हो इस तरह सुखपूर्वक निद्रावश हो जाता है। (५२-५५) पुंसः पित्तप्रतप्तस्य परितो ज्वलनस्पृशः । योष्णपीडा ततोऽनन्तगुणा तेषूष्ण वेदना ॥५६॥ तथोष्णवेदनेभ्यस्ते नरकेभ्यश्च नारकाः । उत्पाट्य किंशुकाकार खदिरांगार राशि षु ॥५७॥ ध्यायन्ते यदि निक्षिप्य तदा ते चन्दनद्रवैः । .. लिप्ता इवात्यन्त सुखान्निद्रां यान्ति क्षणादपि ॥५८॥ . गरमी के दिन हो और मध्याह्न समय तप रहा हो, आकाश में कही बादल नहीं दिखता हो उस समय पित्त की व्याधि वाले मनुष्य को चारों तरफ प्रज्वल रही अग्नि के ताप की जो पीड़ा होती है उससे भी अनन्त गुणा उष्ण वेदना इन नरकों में होती है । और उनको इस तरह उष्ण वेदना वाली नरक में से उठाकर यदि किंशुभ समान लाल खादिर के अंगारे में रखा जाय और उस अंगारे को गरम किया जाय फिर भी यह तो मानो कि चन्दन रस के विलेपन से विलिप्त हो इस तरह क्षण भर में वहां अत्यन्त सुखपूर्वक सो जाता है । (५५-५८) ___ सदा क्षुद्वह्निना दह्नमानास्ते जगतोऽपि हि । धृतान्नादिपुद्गलौधैः न तृप्यन्ति कदाचन ॥५६॥ उनकी जठराग्नि इतनी प्रदीप्त रहती है कि जगत में रहे समस्त अन्नधृत आदि से भी उनको तृप्ति नहीं होती है । (५६) तेषां पिपासा त ताल कण्ठ जिह्वा दिशोषणी। सकलाम्भोधि पानेऽपि नोप शाम्यति कर्हि चित् ॥६०॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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