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(१०१) कुथित श्वाहिमार्जार मृत केभ्योऽपि दारूणः । गन्धस्तत्ररसोनिम्बघोषातक्यादितः कटु ॥४७॥
वहां की गंध सड़ा हुआ श्वान, सर्प तथा बिल्ली आदि के कलेवरों की गंध से भी उत्कट होती है और रस तो नीम से भी अतीव कड़वा होता है.। (४७)
स्पर्शो वह्नि वृश्चिकादि स्पर्शादप्याति दारूणः । परिणामोऽगुरुलघुरप्यतीव व्यथाकरः ॥४८॥
इनको अग्नि स्पर्श अथवा बिच्छू आदि के स्पर्श से भी अत्यन्त दारूण कष्ट होता है और इनके परिणाम अगुरु लघु होने पर भी अतीव व्यथाकर है। (४८)
शब्दोऽपि सततं पीडाक्रान्तानामतिदारूणाः । विलापरूपः श्रवणादपि दुःखैक कारणम् ॥४६॥
लगातार पीड़ित होते नरक के शब्द भी मानो विलाप करते हो । इस तरह दारूण होता है, यह सुनने वाले को भी दुःख उत्पन्न होता है । (४६)
कुडयेषु वाजिकेष्वत्र सन्ति वातायनोपमाः ।
अचित्ता योनयस्तासूत्पद्यन्ते नारकाः किल ॥५०॥
वहां वज्र की कुंभि में खिड़की समान अचित योनियां होती है जो इन नारकों का उत्पत्ति स्थान है । (५०)
तथोक्तं तत्वार्थवृत्तौ -
शीतोष्णक्षुत्पिपासाख्याः कण्डुश्च परतन्त्रता । .. — ज्वरो दाहो भयं शोकस्तत्रता दश वेदना ॥५१॥
तत्वार्थ. वृत्ति में नरक की दस प्रकार की वेदना गिनायी है वह इस प्रकार से ठंडी, धूप, भूख, प्यास खसरा परतंत्रता, ज्वर, दाह, भय और शोक । (५१)
माघरात्रौ शीतवायौ हिमाद्रौ खेऽभ्रवर्जिते ।। निरग्नेर्वातविकृतेर्दुःस्यपुंसो निरावृतेः ॥५२॥ तुषारकणसिक्तस्य या भवेच्छीतवेदना । तंतोऽप्यनन्तगुणिता तेषु स्याच्छीतवेदना ॥५३॥ तेभ्यः शीत वेदनेभ्यो नरकेभ्यश्च नारकाः । यथोक्त पुरुष स्थाने स्थाप्यनते यदि ते तदा ॥५४॥