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(६६) त्रिशती सप्तपंचाशत् पंचमे प्रतरे भवेत् । त्रिशत्येकोनपंचाशत् षष्टे प्रतर इष्यते ॥१४॥ एक चत्वारिंशदाढया त्रिशती सप्तमे मता । त्रिशती च त्रयस्त्रिंशत् त्रिशती पंचविंशतिः ॥१५॥ त्रिशती सप्तदश च त्रिशती स्यान्नवोत्तरा । एकाधिका च त्रिशती प्रतरेष्वष्टमादिषु ॥१६॥.. त्रयोदशेऽथ प्रतरे आवलीनरकालयाः । त्रिनवत्यधिके प्रोक्ते द्वे शते तत्ववेदिभिः ॥१७॥ .
अतः दूसरे प्रस्तर में तीन सौ इकासी नरकावास होते हैं, तीसरे में तीन सौ तिहत्तर नरकवास होते है, चौथे में तीन सौ पैंसठ होते है, पांचवें में तीन सौ सत्तावन, छठे में तीन सौ उनचास, सातवें में तीन सौ एकतालीस, आठवें में तीन सौ तैंतीस, नौवें में तीन सौ पच्चीस; दसवें में तीन सौ सत्तरह, ग्यारहवें में तीन सौ नौ, बारहवें में तीन सौ एक और तेरहवें में दो सौ तिरानवें आवली गत आवास होते हैं । (१३-१७)
शेषाः पुष्पावकीर्णाः स्युः पंक्तीनामन्तरेषु ते । सर्वेष्वपि प्रतरेषु विर्कीण कुसुमौघवत् ॥१८॥
और यह आवली गत नरंक आवास के उपरांत अन्य आवलियों के बीच के भाग में पुष्पावकीर्ण कहलाने वाले आवास भी होते हैं । (१८)
चत्वारि स्युः सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च। त्रयस्त्रिशच्च धर्मायामावलीनरकालयाः ॥१६॥
इस तरह प्रथम धम्मा नरक में आवलीगत आवास कुल मिलाकर चार हजार चार सौ तैंतीस होते हैं । (१६)
एकोनत्रिंशल्लक्षाणि शतानि पंच चोपरि । सहस्त्राः पंचनवतिः सप्तषष्टिः प्रकीर्ण काः ॥२०॥
तथा पुष्पावकीर्ण आवासों की संख्या उन्तीस लाख पंचानवे हजार पांच सौ सड़सठ कही है । (२०)
त्रिंशल्लक्षाश्च निखिला धर्मायां नरकालयाः । . सर्वेऽपि चैतेऽन्तर्वृत्ता बहिश्च चतुरस्त्रकाः ॥२१॥