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चौदहवां सर्ग मुक्त्वैकैकं सहस्र चोपर्यधः प्रथमक्षितेः । सहस्रष्टसप्तत्याऽधिके योजन लक्षके ॥१॥ त्रयोदश प्रस्तराः स्युः नरकावास वीथयः । समश्रेणि स्थायिभिस्तैरकैकः प्रस्तटोहियत् ॥२॥ युग्मं ।
चौदहवें सर्ग में प्रथम नरक पृथ्वी के एक लाख अस्सी हजार योजन पिंड में से ऊपर नीचे हजार-हजार छोड़कर शेष एक लाख अठहत्तर हजार योजन में तेरह प्रस्तर आते हैं, वहां नरकवास की श्रेणियों वाले तेरह पस्तट-प्रतर है क्योंकि समश्रेणि में रहे उस नरकावास द्वारा एक-एक प्रतर होते हैं । (१-२). ..
तथोक्तमंरीजीवाभिगमे-"इमीसेणंरयणुप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजो अण सय सहस्स बाहल्लाए उवरि एगंजो अणसहस्सं ओगा हेत्तो हेठाचेगं जो अण सहस्सं वज्जिता माझे अट्टहुत्तरे जो अण सय सहस्से इत्थणं रयणप्प भाए, पुढवीए तीसं नरयावास सयसहस्सा भवन्ती तिमख्खाया।"
"इस सम्बन्ध में श्री जीवाभिगम सूत्र में इस तरह वचन मिलते हैं - एक लाख अस्सी हजार योजन के विस्तार वाली रत्नप्रभा पृथ्वी में ऊपर एक हजार योजन तथा नीचे भी एक हजार योजन छोड़कर मध्य में एक लाख अठहत्तर योजन प्रदेश में तीस लाख नरक वासं के स्थान है। "
सर्वेऽप्यमी योजनानां सहस्रंत्रयमुच्छ्रिताः । सर्वास्वपि क्षितिष्वेषां मानं ज्ञेयमिदं बुधैः ॥३॥
समग्र प्रस्तर तीन हजार योजन ऊँचे हैं । दूसरे नरको में भी प्रस्तरों की इसी तरह ऊँचाई है । (३)
एकादश सहस्राणि शतानि पंच चोपरि । ... त्र्य शीतियेजिनान्यंशस्तृतीयो योजनस्य च ॥४॥
और यह प्रस्तर एक दूसरे से ग्यारह हजार पांच सौ तिरासी पूर्ण अंक और एक तृतीयांश योजन अन्तर से है । (४)
एतावदन्तरं ज्ञेयं प्रस्तटानां परस्परम् । प्रति प्रतटमेकैको भवेच्च नरके न्द्रकः ॥५॥