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________________ (६३) अवधि की आकृति 'तप्र सद्दश कहलाती है । तप्र अर्थात् चौड़ा त्रिकोन लोक में प्रसिद्ध है ।' (३०७-३०८), भवनपतिभिरेवं भूषितः स्वप्रभाभिः तिमिर निकर भीष्मः कोऽप्यधोलोक एषः । ततिभिरिव निशीथो दीप्र दीपांकुराणाम् इव धनवनखंडः पुण्डरीकैः प्रफुल्लैः ॥३०६॥ बिलकुल गाढ अन्धकार पूर्ण यह अधोलोक भवनपति देव की चमकती कान्ति के कारण मध्य रात्रि में तेजस्वी दीपकों की हारमाला के कारण शोभायमान होती है और बहुत घना झाडी वाला जगत प्रफुल्लित कमल श्रेणि के कारण शोभायमान होता है वैसा शोभायमान होता है । (३०६) विश्वाश्चर्यद कीर्ति कीति विजय श्री वाचकेन्द्रान्तिष द्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः। काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगतत्व प्रदीपोपमे, सर्गोयं सुभगः त्रयोदशतमः सार्थः समाप्तः सुखम् ॥३१०॥ ___ इति त्रयोदशः सर्गः ॥ समग्र जगत को आश्चर्य में गायी जाती कीर्ति वाले श्री कीर्ति विजय जी वाचकेन्द्र के अन्तेवासी तथा माता राजश्री और पिता तेजपाल के सुपुत्र विनय विजय जी ने जगत के निश्चित तत्वो को दीपक के समान प्रकाश में लाने वाले जो इस ग्रन्थ की रचना की है उसका मनोहर सुन्दर अर्थवाला तेरहवां सर्ग विघ्नरहित समाप्त हुआ है । (३१०): . ॥ तेरहवां सर्ग समाप्त ॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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