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तथापि भवनेष्वेषां निवास रूढयपेक्षया । सामान्यतोऽमी भवनवासिनः स्युर्दशापि हि ॥२६६॥
असुर जाति के देव प्रायः रमणीक आवास अर्थात् महामंडपों में और कदाचित भवनों में रहते हैं जबकि दूसरे नागकुमार आदि देव प्रायः भवन में और कभी आवास में रहते है । फिर भी सर्व जाति वालों को भवन में रहने की रूढि की अपेक्षा से इनको भवनवासी ऐसा सामान्य नाम होता है । (२६४-२६६)
सम्मूर्छिमा गर्भजाश्च तिर्यंचो गर्भजा नराः । षट् संहननसंपन्ना विराद्वाहतदर्शनाः ॥२६७॥ मिथ्यात्विनश्चोग्रबालतपसः प्रोत्कटकुधः । गर्वितास्तपसा वैरकू रा द्वैपायनादिवत् ॥२६८॥ उत्पद्यन्ते एषु मृत्वा च्युत्वामी यान्ति चामराः । गर्भजेषु नृतिर्यक्षु संख्येय स्थिति शलिषु ॥२६६॥ पर्याप्तबादरक्ष्माम्बु, प्रत्येक पादपेषु च । आरभ्यै क मसंख्ये या वध्ये क समयेन ते ॥३००।
उत्पद्यन्ते च्यवन्तेऽत्र जघन्यं गुरु चाम्तरम् । . संमयश्च मूहूर्ताश्च चर्तुविशतिसम्मिताः ॥३०१॥ कुलकं।
१- समूर्छिम, २- गर्भज तिर्यंच, ३- छ: संघयण वाले गर्भज मनुष्य, ४इसी प्रकार के मिथ्यावी; ५- समझे बिना उग्र तपस्या करने वाले और ६- द्वैपायन ऋषि आदि के समान अति क्रोधी, अति वैर द्वारा और तपस्या के गर्व वाले - इस प्रकार के जीव अरिहंत के शासन की विराधना के कारण से मृत्यु के बाद इन निकायों में उत्पन्न होता है । और यहां से च्यवन कर ये देव संख्यात् आयु स्थिति वाले १- गर्भज मनुष्य २- गर्भज तिर्यंच तथा पर्याप्त बादर ३- पृथ्वीकाय, ४अप्पकाय तथा ५- प्रत्येक वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते है । वे एक समय में एक से लेकर असंख्यात तक उत्पन्न होते है और च्यवन होता है । इनमें उत्पत्ति और च्यवन के बीच में जघन्य अन्तर एक समय का है और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त का होता है । (२६७-३०१)
एषां लेश्याः कृष्ण नील तेजः कापोतसंज्ञिकाः । स्युश्चतस्त्रो नान्तिमे द्वे तथाभवस्व भावतः ॥३०२॥