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भवनपति निकाय असुर आदि दस जाति के इन्द्रों के अनुक्रम से दस चैत्य वृक्षा कहे है । (२८६)
तथोक्तं स्थानांगे दसमस्थानके अस्सत्थ सत्तवन्ने सामलि उम्बर सिरीसदहिवन्ने। वंजुल पलास वप्पो तत्ते य कणियाररूखे य ॥२६०॥ अनेन क्रमेण अश्वत्थादयः चैत्य वृक्षाः ये सिद्धायतना दि द्वारेषु श्रूयन्ते । इति स्थानांग वृत्तौ ॥
स्थानांग सूत्र के दसवें स्थानक में ये वृक्ष सिद्धायतन आदि के द्वारों में क्रमवार इस तरह से कहे है - १- अश्वत्थ २- सप्तवर्ण, ३- श्यामजि, ४- उम्बर ५- शिरीष ६- दधिवर्ण ७- वंजुला ८- वप्रोत्तप्त और १०- कर्णिकार । (२६०)
एतेषा दाक्षिणात्यानां सार्धं पल्योपम स्थितिः । उदीच्यानां तु देशोनं स्थितिः पल्योपमद्वयम् ॥२६१॥.
इन देवों में जो दक्षिण दिशा के देव है वे ढेड पल्योपम की आयुष्य की स्थिति वाले है और जो उत्तर दिशा के देव है वे दो पल्योपम से कुछ कम होते है। (२६१)
देवीनां दाक्षिणात्यानार्थ पल्योपमं स्थितिं । उदीच्यानां तु देशोनमेकं पल्योपमं स्थितिः ॥२६२॥
दक्षिण दिशा की देवियों की. आयुष्य स्थिति आधे पल्योपम की है और उत्तर दिशा की देवियों की एक पल्योपम से कुछ कम कही है । (२६२)
दशाब्दानां सहस्राणि सर्वेषां सा जघन्यतः । आहारोच्छ्वास कालांगमानं व्यन्तरदेववत् ॥२६३॥
और सर्वदेवियों की जघन्य आयुष्य स्थिति दस हजार वर्ष की है । सभी का आहार, श्वासोच्छवास का काल और देहमान आदि व्यन्तर देवे के समान समझना । (२६३)
वसन्ति यद्यप्यसुरा आवासापरनामसु । प्रायो महामंडपेषु रामणीय कशालिषु ॥२६॥ कदाचिदेव भवनेष्वन्ये नागादयः पुनः । वसन्ति भवनेष्वेव कदाचित् मंडपेषु तु ॥२६॥