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(८८) एवं सर्वनिकायेषु देवा दश दशाधिपाः । दाक्षिणात्योत्तराहेन्द्रौ लोकपालास्तथाष्ट च ॥२७८॥
इस तरह सर्व निकायो में उत्तर दक्षिण के दो इन्द्र और आठ लोकपाल मिलकर दस-दस अधिपति देव होते हैं । (२७८)
इस तरह बीस इन्द्रों में से असुर जाति के चमरेन्द्र और बलीन्द्र दोनों का विस्तार सहित स्वरूप कहा गया है अतः शेष रहे धरणेन्द्र आदि अठारह के विषय में विशेष कहने को है वह कहते हैं। . . ....
एवं च धरणेन्द्राधा इन्द्रा अष्ठादशाप्यमी । स्वैः स्वैः सामानिकैस्त्रायस्त्रिंशकैर्लोकपालकैः ॥२७६॥ .. पार्षदैः त्रिविधैरग्रमहिषीभिरूपासिताः ।... सेनानीभिस्तथा सैन्यैः समन्तादात्मरक्षकैः ॥२८० दाक्षिणात्योदीच्यनिजनिकायजैः परैरपि । ...
सेविताः स्वस्वभवनलक्षाणां दधतीशताम् ॥२८१॥ विशेषकं ।
इस प्रकार धरणेन्द्र अठारह इन्द्रों की सेवा में भी उनके - उनके सामानिक, त्रायस्त्रिंशक, लोकपाल, तीन-तीन पर्षदाएं, पटरानियां, सैन्य, सेनाधिपतियों, अंगरक्षकदेव तथा उनकी जाति में उत्पन्न होने वाले अन्य देव लगातार हाजर हजुर (सेवा) में रहते हैं । और ऐसा ऐश्वर्य भोगते हुए ये अठारह इन्द्र अपने-अपने लाखो भवनों पर स्वामित्व भोगते हैं । (२७६-२८१)
रूपलावण्य सौभाग्यादिभिस्तु चमरेन्द्रवत् । महर्द्धिका महासौख्या महबला महोदयाः ॥२८२॥
और इनका चमरेन्द्र के समान रूप, लावण्य, सौभाग्य, महासुख, महान् ऋद्धि, महाबल और महान उदयवान् होते हैं । (२८२)
एकं जम्बूद्वीपमेते रूपैः पूरयितुं क्षमाः । स्वजातीयैनवैस्तिर्यक् संख्येय द्वीपवारिधीन् ॥२८३॥
तथा वे अपने रूप द्वारा एक जम्बू द्वीप को भर देने का समर्थता है, परन्तु स्व-स्वजातीय नये रूप धारण करना पड़े तो ति लोक के संख्यातवे द्वीप समुद्र को भी भर देते हैं । (२८३)