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अपने विषय में अनुरक्त करके इनके साथ में यथेच्छ विलास करते हैं । (२००-२०४) इस तरह दो सौ चार श्लोक तक असुरकुमार जाति के देवों का वर्णन किया।
अथनागनिकायस्य दाक्षिणात्यः सुरेश्वरः । धरणेन्द्रो वरिवर्ति साम्प्रतीनस्त्वसौ पुरा ॥२०५॥ आसीदहिर्बहिः काशीपुरतः काननान्तरे । शुष्ककाष्टकोटरान्तः सोऽर्क तापार्दितोऽविशत् ॥ युग्मं ।
अब अन्य नागकुमार जाति के देव के विषय में कहते हैं । नाग कुमार जाति के देवों का दक्षिण दिशा का इन्द्र धरणेन्द्र है । वर्तमान में जो धरणेन्द्र है वह पूर्वजन्म में काशी नगरी के बाहर किसी एक वन में एक सर्प था । वह एक समय सूर्य के ताप से घबराकर सूखे लकड़ी के कोटर में चला गया था । (२०५-२०६)
कमठेन परिप्लुष्ट: पंचाग्नि कष्ट कारिणा । तापातः कर्षितः काष्टात् श्री पार्श्वेन कृपालुना ॥२०७॥ स चार्हद्दर्शनान्नष्टपाप्मा श्रुतनमस्कृतिः । उपार्जितोर्जितश्रेया धरणेन्द्र तयाभवत् ॥२०८॥
उस समय वहां एक कमठ नाम का तापस पंचाग्नि तप करता था । उसने उसी सूखी लकड़ी को लाकर अपनी धूनी में जलाया । अतः इसमें रहा वह सर्प जलने लगा, परन्तु इनते में कृपालु श्री पार्श्वकुमार ने आकर जलते हुए सर्प को लकड़ी से बाहर निकलवाया। वे पार्श्व कुमार भावी तीर्थंकर होने वाले थे। उनके दर्शन से पाप मात्र खतम कर तथा नवकार मंत्र सुनकर उत्तम पुण्य उपार्जन किया
और उसी समय. मरकर वहां से नागकुमार निकाय देव में इन्द्र रूप में उत्पन्न हुआ। (२०७-२०८)
ततो मेघसूरीभूतकमठेनाकालिकाम्बुदैः । एष पार्श्वमुपद्रुयमानमाच्छादयत्फणैः ॥२०६॥
वह कमठ तापस काल धर्म प्राप्तकर मेघ कुमार जाति के देव रूप में उत्पन्न हुआ। इसने पूर्वजन्म के बैर के कारण श्री पार्श्वनाथ भगवान को अकाल में बरसात बरसाकर उपद्रव करने लगा, तब धरणेन्द्र ने अपना पूर्वजन्म का उपकारी समझकर भगवान पर अपने फण को धारण कर रखा था । (२०६)