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उनकी गति नीचे आखिर तमः तमा नरक तक है। तीसरे नरक तक तो वे स्वयमेव गये है और जायेंगे। वहां जाने का प्रयोजन यह है कि वहां जाकर पूर्वजन्म के शत्रु को इतने समय अधिक दुःख देना और मित्रों का दुःख इतने समय में दूर करना । (१६६-१६७)
तिर्यक् चैषामसंख्याब्धि द्वीपाः स्युर्विषयो गते : । नन्दीश्वरं पुनद्वपं गता यास्यन्ति च स्वयम् ॥१६८॥ तत्र प्रयोजनं त्वत्कल्याणकेषु पंचसु । संवत्सर चतुर्माक्षादिषु चाष्टाहिकोत्सवः ॥१६६॥
उनकी तिर्च्छा गति असंख्य द्वीप समुद्र तक की होती है। नंदीश्वर में तो वे स्वयमेव जाते है और जाने वाले भी है। वहां जाने का उनका प्रयोजन यह है कि वहां जाकर वे भगवान के पांच कल्याणक दिन, संवत्सरी पूर्व और चतुर्मासादि में अट्ठाई महोत्सव करते हैं । (१६८-१६६)
तथैषां गतिविषय़ ऊर्ध्वमप्यच्युतावधि । स्वर्गं सौधर्मं च यावत् गता यास्यन्ति च स्वयम् ॥ २००॥ प्रयोजनं तत्र भवप्रत्ययं वैरमूर्जितम् । मातंगपंचाननवदेषां वैमानिकैः सह ॥ २०१ ॥ ततो वैरादमी मत्ता गत्वा वैमानिकाश्रयान् । कुर्वन्ति व्याकुलं स्वर्गं त्रासयन्त्यात्मरक्षकान् ॥२०२॥ शक्रमप्याक्रोशयन्ति प्रागुक्तचमरेन्द्रवत् । वैर प्रसिद्धिों के sपि देवदानवयोरिति ॥२०३॥ रत्नान्यप्सरसस्तेषां प्रसह्यापहरन्ति च । गत्वैकान्तै स्वानुरक्तास्ताः स्वैरं रमयन्त्यपि ॥२०४॥
और ये देव उच्चे अच्युत देवलोक तक जा सकते है। सुधर्मादेव लोक तक तो वे स्वयं गये हैं और जाने वाले हैं। वहां वे इसलिए जाते हैं कि इनको वैमानिक देवों के साथ में हाथी और सिंह समान वैर होता है। इन वैर के कारण वे वैमानिको के आवास में जाते है और वहां स्वर्ग लोक को आकुल व्याकुल कर वहां के रक्षकों को हैरान-परेशान करते हैं। पूर्व में जो चमरेन्द्र का उदाहरण दिया है वैसे वे शक्रेन्द्र पर भी आक्रोश करते हैं। लोक में भी देव दानव के वैर की बात प्रसिद्ध है । उनकी स्त्री रत्न को वे बलात्कार जबरदस्ती हरण कर जाते है और एकांत में जाकर उनको