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________________ (६६) अब बलीन्द्र नामक दूसरे असुरेन्द्र के विषय में कहते है - सौभाग्यनिधि यह बलीन्द्र उत्तर दिशा का स्वामी है । (१४८) तथाहि दिशि क्रौबेाँ जम्बूद्वीपस्थमेरूतः । असंख्यद्वीपाब्धिपरो द्वीपोऽरूणवराभिधः ॥१४६॥ . तस्य बाह्यवेदिकान्तात् तस्मिन्नेव पयोनिधौ । द्विचत्वारिंशत्सहस्त्रयोजनानां व्यतिक्रमे ॥१५०॥ रूचकेन्द्राभिधोऽस्त्यत्र बलेरूत्पात पर्वतः । तिर्यग्लोके जिगमिषोः बलेरूत्पतनास्पदम् ॥१५१॥ युग्मं । जम्बू द्वीप में रहे मेरूपर्वत से उत्तर दिशा में असंख्य द्वीप समुद्र छोड़कर अरूणवर नाम का द्वीप आता है इससे बाहर की वेदिका के किनारे से इसी समुद्र में बयालीस हजार योजन छोड़कर बलीन्द्र का 'रूचकेन्द्र' नाम का उत्पात पर्वत आता है तिर्छालोक में जाना होता है तब बलीन्द्र सर्वप्रथम वहां आकर फिर वहां से उड़ता है । (१४८-१५१) तिगिंछिकूटतुल्योसौ प्रमाणादिस्वरूपतः । बलेप्रसादोऽस्ति तत्र प्राग्वत् सिंहसनांचितः ॥१५२॥ यह रूचकेन्द्र का प्रमाण आंदि तिगिछिकूट समान है वहां से आगे पूर्वोक्त समान सिंहासनादि युक्त बलीन्द्र का प्रासाद है (१५२) कोट्यः पंचपंचाशत् षट् कोटीनां शतानि च । पंचत्रिंशच्च लक्षाणि पंचाशच्च सहस्त्रकाः ॥१५३॥ योजनानि व्यक्तिक्रम्याम्भोधावुत्पातपर्वतात् । गर्भे रत्नप्रभा पृथ्व्या गत्वाधो योजनानि च ॥१५४॥ चत्वारिंशत्सहस्राणि वर्तते तत्र मंजुला । बलिचंचा राजधानी स्त्यानीभूताः इव त्विषः ॥१५५॥ विशेकम् । इस उत्पात पर्वत से समुद्र में छ: सौ पचपन करोड़ साढ़े पैंतीस लाख योजन जाने के बाद नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी के गर्भ में चालीस हजार योजन छोड़कर कान्तिमय समस्त पिंडीभूत हो रही हो ऐसी मनोहर बलीन्द्र की बलि चंचा नगरी आई हुई है। (१५३-१५५) अस्याः चमरचंचावत् स्वरूपमखिलं भवेत् । वप्रप्रासादादि तेषां प्रमाणानुक्रमादि च ॥१५६॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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