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________________ (६८) तल्लीन रहकर साम्राज्य भोगते यह चमरेन्द्र एक सागरोपम का आयुष्य पूर्ण कर वहां च्यवन कर आगामी जन्म में सिद्ध पद प्राप्त करेगा । (१३८ - १४२) च्यते चास्मिन्नस्य पदे पुनरुत्पत्स्यतेऽपरः । एवं मव्युच्छि तिनयान्नित्य एवैष उच्यते ॥ १४३॥ यह यहां से च्यवन होगा तब इसके स्थान पर अन्य चमरेन्द्र उत्पन्न होगा । इस तरह अविच्छेद रहने से चमरेन्द्र नित्य ही कहलाता हैं । (१४३), . पूर्ण जम्बूद्वीपमेकमेष पूरयितुं क्षमः । असुरैरसुरीभिश्च निजशक्त्या विकुर्वितैः ॥१४४॥ और इस चमरेन्द्र में इतना सारा सामर्थ्य है कि यदि यह चाहे तो इतने देव और देविया बना सकता है जिससे पूरा जम्बूद्वीप सम्पूर्ण भरं सकती है। (१४४) तिर्यक् पुनरसंख्येययान् द्वीपपाथोनिधींस्तथा । एवं सामानिकाः त्रायस्त्रिंशाः चास्य प्रभूष्णवः ॥ १४५ ॥ तिरछा तो इसी तरह असंख्य द्वीप समुद्र भर देने का इसमें सामर्थ्य है ऐसा सामर्थ्य इसके सामानिक तथा त्रायस्त्रिंशक देवों में भी होता है । (१४५ ) अस्यैवं लोकपालाग्रमहिष्योऽप्यथ किन्तु ते । शक्ताः पूरयितुं तिर्यक् संख्येय द्वीपवारिधीन् ॥१४६॥ इत्यर्थतो भगवत्याम् । और इसके लोकपाल देव तथा पटरानियां भी इसी तरह तिर्च्छालोक में संख्यात द्वीप समुद्र भर देने का सामर्थ्य धारण करते हैं । (१४६) ऐसा भावार्थ श्री भगवती सूत्र में कहा है । देवेन्द्र स्तवे तु - जावय जम्बूद्दीवो जावय चमरस्स चमरचंचाओ । असुरेहिं असुरकन्नाहिं अस्थि विसओ भरेओ से ॥ १४७॥ देवेन्द्र स्तव में तो इस तरह कहा है कि - चमरेन्द्र अपनी चमर चंचा से लेकर जहां तक जम्बू द्वीप है वहां तक का सारा भाग देव ओर देवियों से भरने को समर्थ होता है । (१४७) अथान्योऽसुर देवेन्द्रो बली नामा निरूप्यते । उत्तरस्यां दिशि विभुः योऽसौ सौभाग्यसेवधि ॥ १४८ ॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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