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कालीश्रीतनुसंभूताकाली नामाभवत् सुता । वृहत्कुमारी श्रीपार्श्वपुष्पचूलार्पितवता ॥११७॥ यथा छन्दीभूयं दोषानप्रतिक्रम्य पाक्षिकीम् । कृत्वा संलेखनां मृत्वा चमरेन्द्र प्रिया भवत् ११८॥ विशेषकं ।
इसमें काली नाम की प्रथम पट्टरानी है। पूर्वजन्म में इसी जम्बूद्वीप के अन्दर दक्षिण भारत में आमल कल्पा नामक नगर था, उसमें काम नाम का गृहस्थ था उसकी कालश्री नाम की स्त्री की कुक्षि से जन्मी हुई काली नाम की पुत्री थी । इसने कुमारी अवस्था में ही योग्य उम्र होने के बाद श्री पार्श्वनाथ भगवान की पुष्पचूला नाम की साध्वी के पास दीक्षा ली थी। परन्तु बाद में वह स्वच्छ रूप में आचरण करने लगी। और मृत्यु के समय में दोषों की आलेचना बिना प्रतिक्रमण बिना एक पक्ष की संलेखना करते हुए मृत्यु प्राप्त कर चमरेन्द्र की स्त्री हुई है। (११६-११८)
कालावतंस भवनं कालं सिंहासनं भवेत् । काल्या देव्याः परासामप्येवं स्वाख्यानुरूपतः ॥११६॥
इसी काली देवी का कालावंतस नाम का भवन और काल नाम का सिंहासन है । अन्य चारों देवियों को भी इनके नाम के अनुसार ये दोनों ही वस्तु समान जानना । (११६)
स्व स्वनाम सहक नाम जननी जनका इति । ज्ञेयाः शेषाश्चतस्त्रोऽपि तथैव मलिनवताः ॥१२०॥
तथा इन चारों के माता पिता के नाम इनके अपने नाम समान जानना और इनके व्रत को पहले के समान अतिचार दूषित समझना । (१२०)
स्वाख्यावतंसे भवने स्वाख्ये सिंहासनेऽभवन् । चमरेन्द्र प्रिया एताः सार्द्धपल्यद्वयायुषः ॥१२१॥
इस प्रकार अपने अपने नाम के भवन तथा अपने-अपने नाम का सिंहासन है इस तरह पांचों पटरानियां चमरेन्द्र की अढाई पल्योपम की आयुष्य वाली है । (१२१)
बलीन्द्रदयितानामप्यै तिहमनया दिशा । . श्रावस्त्यासां पुरी सार्द्धमायुः पल्यत्रयं पुनः ॥१२२॥