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________________ (६२) एते च जम्बूद्वीपेऽत्र क्षेत्रे भारतनामनि । काकन्द्यां पूर्यवर्तन्त त्रयस्त्रिंशत् महर्द्धिकाः ॥१०२॥ . श्रद्धालवो ज्ञात तत्वा सहायाश्च परम्परम् । पूर्वं ते भावितात्मानोऽभूवन्नुग्रक्रियाश्रयाः ॥१०३॥ पश्चाच्च कर्मवशतो जाता धर्मेश्लाथाशयाः । पार्श्वस्था अवसन्नाश्च कुशीलाः स्वैरचारिणः ॥१०४॥. एवं च भरि वर्षाणि श्रमणोपासक क्रियाम् । आराध्यार्द्ध, मासिकी ते कृत्वा संलेखनामपि ॥१०॥ अनालोच्या प्रतिक्रम्याति चास्तिान् पुराकृताम्। ... .. मृत्वात्रयस्त्रिंशकत्वंलेभिरे चमरेशितुः ॥१०६॥ युग्मं । ये तैंतीस देव पूर्वजन्म में जम्बू द्वीप के क्षेत्र में काकंदी नगरी में तैंतीस अति समृद्धशाली सेठ थे । वे श्रद्धालु तत्वज्ञान को जानने वाले, परस्पर सहायक, भाविक और उग्र क्रिया करने वाले थे। परन्तु बाद में कर्मवशात् इनका धर्म के प्रति आदर शिथिल हो जाने से वे तटस्थ, अवसन्न, कुशील और स्वेच्छाचारी हो गये। इन्होंने बहुत वर्षों तक श्रावक क्रिया का पालन करके अन्तिम समय में पंद्रह दिन की संलेखना की परन्तु पूर्व में इनको लगे अतिचारों की आलोचना किए बिना और प्रतिक्रमण किए बिना मृत्यु प्राप्त कर इसी चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिंशक देव उत्पन्न हुए हैं । (१०२-१०६) त्रायस्त्रिंशक रूढिस्तु नैतेभ्य एव किन्तु ते । उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च स्वस्वस्थित्या परापराः ॥१०७॥ इन त्रास स्त्रिशंक देवों की प्रथा इनके कारण ही नहीं पड़ी है, परन्तु ये इनकी स्थिति के कारण से अन्य अन्य उत्पन्न होते हैं और च्यवन होता है । (१०७) तिस्त्रोऽस्य पर्षदस्तत्राभ्यन्तरा समिताभिधा । मध्या चंडाभिधा ज्ञेयाबाह्या जाताह्वया पुनः ॥१०८॥ इस चमरेन्द्र की तीन पर्षदा होती है १- अभ्यन्तर में आई पर्षदा का नाम समिता है २- मध्य में चंडा नाम की पर्षदा है और ३- बाहर की नामा जाता पर्षदा है । (१०८) स्युश्चर्तुविंशतिः देव सहस्त्राण्याद्यपर्षदि । सार्धपल्योपमद्वंद्वस्थितीन्यथा तत्र पर्षदि ॥१०॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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