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(६१) इत्युक्त्वा वामपादेन त्रिः प्रह्यतय वसुन्धराम् । क्षमयित्वा जिनेन्द्रं च सुरेन्द्रः स्वास्पदं ययौ ॥६५॥
इस प्रकार कहकर, बायें चरण से पृथ्वी पर तीन बार प्रहार करके प्रभु से क्षमा मांगकर सौधर्मेन्द्र अपने स्थान पर गया । (६५)
ततो वज्रभयात् मुक्तश्चमरेन्द्रो निजाश्रयम् । गत्वा सामानिकादीनामुवाचोदन्तमादितः ॥६६॥
उसके बाद चमरेन्द्र भी वज्र के भय से मुक्त हो गया और विघ्न रहित अपने स्थान पर पहुँच गया । वहां उसने सर्व बीती बात को अपने सामानिक देवों को सुनाया । (६६)
भद्रं स्तात् त्रैशलेयाय तस्मै त्रैलोक्य बन्धवे । येन त्रातोऽस्मि मरणात् हंत वज्राग्निदुस्सहात् ॥१७॥ उपकारमिति प्राज्ञः तं स्मरन् सपरिच्छदः । गत्वा पुनर्महावीरमभ्यर्च्य ताण्डवादिभिः ॥१८॥ आगत्य स्वास्पदं प्रीतो. विस्मृतेन्द्र पराभव ।
धर्म कर्म स्थितिं सर्वामाराध्य सुखभागभूत् ॥६६॥ विशेषकं । - तीन जगत के बन्धु श्री वीर परमात्मा का कल्याण हो कि जिन्होंने विनाशकारी दुःसह वज्राग्नि से मुझे मृत्यु से बचाया है। इस तरह इनके उपकार को स्मरण करते हुए बुद्धिमान बना वह चरमेन्द्र अपने सारे परिवार को लेकर पुन: प्रभु के पास आया, वहां उसने प्रभु के आगे नृत्यादि करके इसी तरह उनको सन्मान से प्रसन्न करके वापिस अपने स्थान पर आया । वहां इन्द्रकृत पराभव को भूलकर सर्वप्रकार के धर्म कार्यों को करते हुए अभी सुखपूर्वक रहता है । (६७-६६)
अयं च चमरोऽयासीद्यत्सौधर्मावतंसकम् ।
आश्चर्यमेतद्विज्ञेयमनन्तकालसम्भवि ॥१०॥ यह चमरेन्द्र सौधर्म देवलोक में लड़ने गया। यह अनन्तकाल में ऐसा हुआ है। यह एक आश्चर्य रूप समझना चाहिए । (१००)
चतुः षष्टि सहस्राणि सामानिक सुधा भुजः । अस्यत्रायस्त्रिंशकाश्च त्रयस्त्रिंशत्सुधाशिनः ॥१०१॥ इस चमरेन्द्र के चौसठ हजार सामानिक देव है और तैंतीस त्राय स्त्रिंशक देव होते हैं । (१०१)