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अप्सराओं को और इनके परिवार को भी अभी ही काबू कर देता हूँ । मेरे जैसे की आशातना करने का फल क्या आता है ? इसकी अब इन्द्र को खबर पड़ेगी। इस तरह अश्रुत पूर्व चमरेन्द्र के वचन सुनकर सौधर्मन्द्र ने भी भ्रकुटी चढ़ा दी।
सक्रोधहासमित्याह किं रे चमर दुर्दश । नवोत्पन्नोऽसि रे मूढ मुमुर्षस्यधुनैव किम् ॥६॥ यद्वा तवेयानुत्साहोनायैव न संशयः । पक्षौ पिपीलिकानां हि जायेते मृत्युहेतवे ॥६॥
और क्रोध तथा हास्यपूर्वक कहने लगा। - अरे श्याम मुख वाले मूढ चमर ! अभी ही नया उत्पन्न हुआ है और शीघ्र ही क्यों मौत मांग रहा है ? अथवा तेरा यह सारा उत्साह निश्चय से अनर्थ के लिए ही है । चींटी की पांखे आती है, वह उसकी मृत्यु का ही कारण हो जाती है। (८६-६०) ।
इमां गृहाणातिथेयी मदवज्ञा फलं मनाक् । मुमोच वज्रमित्युक्त्वाग्वलज्जवालाकरालितम् ॥६१॥ तद् दृष्ट्वा चकितोऽत्यन्तं नश्यन संकोच्य भूधनम् । प्रविष्टो रक्ष रक्षेति वदन् वीर क्रमान्तरे ॥६२॥
अब तुम भी मेरे आतिथ्य-मेरी अवज्ञा का फल प्राप्त करो। इस तरह कहकर सौधर्मेन्द्र ने अपना जाज्वल्यमान भीषण वज्र छोड़ा । यह देखकर चमरेन्द्र डर गया
और भागने लगा तथा जहां श्री वीर परमात्मा ध्यानस्थः थे वहां जाकर त्राहिमाम्त्राहिमाम् अर्थात् रक्षा करो, रक्षा करो इस तरह बोलता हुआ शरीर को संकुचित (छोटा) करके उनके दोनों पैरों के बीच घुस गया । (६१-६२)
ततः शक्रोऽपि विज्ञाय वीरं तच्छरणी कृतम् । । चतुरंगुलमप्राप्तमादाय पविमित्यवक् ॥३॥ कम्प से किमिदानी भोः पशः सिंहेक्षणादिव । वीर प्रसादात् मुक्तोऽसि न ते मत्तोऽधुना भयम् ॥६४॥
अतः शक्रेन्द्र भी कि, यह श्री वीर परमात्मा के चरणों में गया है ऐसा जानकर, इससे चार ही अंगुल अंतर पर रह गये वज्र को लेकर बोला "अरे सिंह को देखकर पशु कांपता है अब तुम भी कहां से कांपने लगे"? जाओ, अब मैं तुझे श्री वीर परमात्मा की कृपा के कारण से जाने देता हूँ। अब तुझे मेरी ओर से भय नहीं होगा । (६३-६४)