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(५६) नगर के बाहर अशोक बन में जाकर अशोक वृक्ष के नीचे शिलापर कायोत्सर्ग ध्यान में रहे वीर परमात्मा को नमस्कार करके आप का आश्रय, मैं युद्ध के लिए जा रहा हूँ, मुझे आप का शरण हो ? इस तरह कहकर पुनः उड़द की राशि और अमावस्या की रात्रि समान भीषण लाख योजन प्रमाण उत्तर वेक्रिय शरीर धारण कर वह आकाश मार्ग में उड़ गया । (७७-८१)
कुर्वन्कवचित् सिंहनादं क्वचिच्च गजगर्जितम् । हय हेषारवं क्वापि क्वचित्कलकल ध्वनिम् ॥८२॥ क्षोभयन्निव पातालं कम्पयन्निव मेदिनीम् । तिर्यग्लोकं व्याकुलयन् स्फोटयिष्यन्निवाम्बरम ॥३॥ विद्युदृष्टि गर्जितानि रजस्तमांसि चोत्किरन् । त्रासयन् व्यन्तरान् देवान् कुर्वान् ज्योतिषिकान् द्विधा ॥४॥ विमानस्याथ सौधर्मावतंसकस्य वेदिकाम् । आक्र म्यै केनापरेण सुधर्मा संसदड पदा ॥८५।। जघान परिघेणेन्द्र कीलकं त्रिस्ततोऽवदत् । क्व रे शक्रः क्व रे सामानिकाः क्व रे सुगः परे ॥८६॥ कुलकम् ।
कभी सिंहनाद करने लगा, कभी हस्ती के समान गर्जना करने लगा तो कभी अश्व समान हिनहिनाता था तो कभी कल कलाट कर देता था। मानो पाताल को क्षोभित न करता हो, पृथ्वी को कम्पायमान न करता हो और आकाश मंडल फाड़ देता हो इस तरह तिरछे लोक को आकुल व्याकुल करता, चारों दिशाओं में बिजली, वर्षा, गर्जना, धूल तथा अंधकार फैलाता व्यन्तर देवों को डराता और ज्योतिषियों के दो विभाग कर अलग करता, एक पैर से सौधर्मेन्द्र के विमान की वेदिका पर तथा दूसरे पैर से सुधर्मा सभा पर आक्रमण करके, उसने अपनी परिध द्वारा इन्द्र कील परं तीन प्रहार किये और फिर बोला - 'अरे ! सौधर्म ! इसके सामानिक देव और अन्य सब देव कहां है ?' (८२-८६)
पातयामि घातयामि शातयाम्यधुनाखिलान् । करोम्यप्सरसः सर्वाः स्वायत्ताः सह वैभवैः ॥७॥ फलं मदाशातनायाः शक्रोऽनुभवतादिति । गिरः श्रुत्वा श्रुतपूर्वाः भ्रकुटी भीषणो हरिः ॥८८॥ अभी ही इन सब को गिरा देता हूँ, भार देकर हेरान परेशान कर देता हूँ । इन