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________________ (५८) इस तरह इसने निश्चय किया, परन्तु इसके साथ में इसको विचार आया कि यह भी वज्रधारी इन्द्र है । इससे कभी इसके वज्र द्वारा यदि मुझे मरने का समय आया हो तो मेरा शरण किसका होगा ? (७३) - विचिन्त्येत्यवधिज्ञानोपयोगाच्चमराधिपः । सुसुमार पुरोधानेऽपश्यत् वीरजिनेश्वरम् ॥७४॥ इस तरह चिन्तन कर इसने अवधिज्ञान से उपयोग दिया तो सुसुमार नगर के उद्यान में विराजमान श्री वीर परमात्मां को उसने देखा । (७४) दध्यौ चायं जिनोवीरः प्रतिमामेकरात्रिकीम् । प्रतिपद्याष्टमतपा एक पुद् गलदत्तदृक् ॥७५॥ निर्निमेषो निष्प्रकम्पः कायोत्सर्गेऽस्त्यवस्थितः । एका दशाब्द पर्यार्ये शरण्योऽस्तु स एव मे ॥७६॥ युग्मं वीर परमात्मा को देखकर उसी समय उसने विचार किया कि आज वीर प्रभु का अट्टम तप हैं । एक ही वस्तु पर अनिमेष दृष्टि रखकर एक रात्रि की 'पडिमा ' अंगीकार की है । निश्चय रूप में ग्यारह वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले कायोत्सर्ग ध्यान स्थिर हैं इनका मुझे शरण स्वीकार हो । ( ७५-७६) इति ध्यात्वावश्यकार्यं त्यक्त्वार्हदर्चनादिकम् । उत्थायोत्पादशय्यायाः तद्देवदूष्ये संवृतः ॥७७॥ उपादाय प्रहरणरत्नं परिघमुद्धतः 1 तिगिंछिकूटमुत्पातगिरिमागत्य सत्वरम् ॥७८॥ नव्यं वपुर्विधायैत्य सुसुमारपुरात बहिः । अशोककाननेऽशोकतरोर्मूले शिलोपरि ॥७६॥ नमस्कृत्य जिनं युष्मन्निश्रया याम्यहं युधे । यूयं मे त्राणमित्युक्त्वा भूयोऽप्युत्तरवैक्रियम् ॥८०॥ वपुर्भीष्मं माषराशिकु हूरात्रि सहोदरम् । कृत्वा योजन लक्षोच्चमुत्पपात नभस्तलय ॥ ८१ ॥ पंचभि । इस प्रकार निश्चय करके उत्पाद शय्या से उठकर जिन पूजा सद्दश, करने योग्य कार्य करने में लग गया, फिर शय्या में ही देव दृष्य वस्त्र परिधान किया, अपना परिध नामक प्रहरण रत्न अर्थात् शस्त्र लेकर सत्वर उद्धत रूप में तिगिंछिकूट नामक उत्पात पर्वत पर आया, वहां उत्तर वैक्रिय शरीर धारण कर वहां से सुसुमार अवश्य
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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