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(५७) मृत्वामुष्यां राजधान्यां चमरेन्द्रतयाभवत् । सर्व पयोप्ति पर्याप्तः तत्कालोत्पन्न एव सः ॥६७॥ ऊर्ध्वमालोकयामास स्वभावात् ज्ञान चक्षुषा । आसौधर्म देवलोकं तत्र दृष्टवा सुरेश्वरम् ॥१८॥ शक्रसिंहासनासीनं पीनतेजः सुखश्रियम् ।
अचिन्तयत् मुमुर्घः कः क्रीडत्येष ममोपरि ॥६६॥ कलापकम् ।
इस तरह बारह वर्ष तक अति दुष्कर तपस्या की । अन्तिम समय में एक महीने का पादपाधोपगमन अनशन करके (पादप अर्थात् वृक्ष आदि गिरा हो वैसे पड़े रहना) इस तरह पड़े रहकर मृत्यु प्राप्त करके. वह इस समय की राजधानी अमरेन्द्र रूप में उत्पन्न हुआ है और सर्व पर्याप्ति से युक्त उत्पन्न हुआ, साथ में ही स्वाभाविक रूप से ज्ञान चक्षु से आखिर सौधर्म देवलोक तक दृष्टिपात करके शक्र के सिंहासन पर बैठे अत्यन्त तेजस्वी और सुख संपति वाले सौधर्म इन्द्र को देखा। इसे देखकर विचार करने लगा कि - मेरे सिर पर यह कौन मौज आनंद कर रहा है ? यह क्या मौत मांग रहा है ? (६८-६६)
ततः सामानि कान् देवान् स आहूयेति पृष्टवान् ।
भो भो क एष योऽस्माकमपि मूर्द्धनि तिष्टति ॥७०॥ - इस तरह विचार कर उसने अपने सामानिक देवों को बुलाकर पूछा- अरे ! अपने मस्तक पर यह कौन है ? (७०)
तेऽपि व्यजिज्ञपत् नत्वा स्वामिन्नेष सुधर्मराट् । नित्या स्थान व्यवस्थेयं सौधर्मेन्द्रासुरेन्द्रयोः ॥७१॥
उस समय उसने भी नम्रता पूर्वक उत्तर दिया कि - हे स्वामिन् ! यह तो सौधर्मेन्द्र है । सौधर्मेन्द्र और असुरेन्द्र का इसी ही तरह रहने का परा पूर्व से चलता आया रिवाज है । (७१) . हन्त तेऽन्ये येऽसुरेन्द्रा एनमित्थं सिरः स्थितम् ।
सेहिरे न सहेऽहं तु पातयिष्याम्यधः क्षणात् ॥७२॥
यह सुनकर उसने कहा- ऐसे को अपने मस्तक पर रहने दे वह दूसरा है । मैं इसे सहन करने वाला नहीं हूँ। मैं तो इसको क्षण में नीचे गिरा देने वाला हूँ। (७२)
निश्चित्येति पुनश्चिते व्यमृशत् सोऽपि वनभृत् । . यद्यनेनाभिहन्येऽहं शरणं मम कस्तदा ॥७३॥