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स एष साम्प्रतीनस्तु जम्बूद्वीपेऽत्र भारते । वेभेलाख्ये सन्निवेशे विन्ध्याचल समी पगे ॥ ५६ ॥ आसीत् गृहपति श्रेष्ठः पूरणाख्यो महर्द्धिकः । जाग्रत्कुटुम्बजागर्या निशि संवेगमाप सः ॥६०॥ युग्मं । प्रातर्निमन्त्रय स्वजनान् भोज्य वस्त्रादिभिः भृशम्। सन्तोष्य ज्येष्ट पुत्राय कुटुम्ब भारमार्पयत् ॥ ६१॥
पतद्ग्रहं दारूमयं कारयित्वा चतुः पुटं । दीक्षां लात्वा दानमयीं चक्रे सातापनं तपः ॥६२॥ षष्टस्यैव पारणायामुत्तीर्यातापनास्थलात् । भिक्षार्थमाटीत् बेभेले करे धृत्वा पतद्ग्रहम् ॥६३॥ भिक्षां ददानः पान्थेभ्यः पतिनां प्रथमे पुटे । काकशाला वृकादीनां द्वितीयपुटसंगताम् ॥६४॥ तां मत्स्यकच्छपादीनां तृतीय' पुटगां ददत् । पांच
तुर्ये भिक्षामादत्स्वयं मिताम् ॥ ६५ ॥ युग्मं । वर्तमान काल का चमरेन्द्र इसी ही जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र के अन्दर विन्ध्य पर्वत के समीप में बेमेल नामक गांव था । वहां पूरण नाम का महा समृद्धिशाली गृहस्थ रहता था । एक समय इनके कुटुम्ब में रात्रि जागरण था, उस समय इसे वैराग्य उत्पन्न होने से प्रभात होते ही स्वजनों को बुलाकर उनको भोजन वस्त्रादि सत्कार करके ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब - परिवार का भार सौंपकर, चार खाने वाला लकड़ी का पात्र बनवा कर, इसने अपने से सभी को दान दे सके ऐसी दीक्षा ली थी । दीक्षित अवस्था में आतपना पूर्वक तपस्या प्रारंभ की छट्ठ-छट्ठ (दो-दो उपवास) के पारणे में हाथ में पात्र लेकर वह उसी बेमेल गांव में भिक्षार्थ घूमता था । पात्र के पहले खाने में जो षठी भिक्षा पड़ती थी उसे पथिक जन को देता था दूसरे विभाग में भिक्षा पड़ती थी वह कौए, भेड़िया आदि को देता था तथा तीसरे विभाग में जो भिक्षा पड़ती थी वह मछली कछुए आदि को देता था और चौथे खाने में पड़ी भिक्षा स्वयं खाता था ।
एवं द्वादश वर्षाणि तपः कृत्वादि दुष्करम् । स पादपोपगमनमङ्गीकृत्यैकमासिकम् ॥६६॥