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________________ (५५) सुधर्मा सभा में जाकर सिंहासन पर आरूढ होकर यथेच्छ रूप में दिव्य भोग को भोगता है । (४८-५१) कामकेलिलालसस्तु जिनस्याशातना भयात् । गत्वा बहिः सुधर्माया रमते रूचितास्पदे ॥५२॥ वहां इसको काम भोग की इच्छा जागृत होती है तब श्री जिनेश्वर भगवन्त के अवशेष-अस्थि की आशातना के भय के कारण सभा के बाहर मनपसन्द स्थान में जाकर वहां विषयोपभोग करता है । (५२) कदाचिच्चैष चमरचंचावासे मनोरमे । सकांतः क्रीडितुं याति क्रीडोद्याने नृपादिवत् ॥५३॥ वह कई बार अपनी देवियों को लेकर अपनी रमणीय चमरचंच नगरी के आवास में क्रीड़ार्थ जाता है । जिस तरह पृथ्वी पति राजा अपनी रानियों को लेकर क्रीडोद्यान में जाता है । (५३) सचैवम् - अस्याश्चमरचंचाया नैऋत्यां ककुभिध्रुवम् । षट्कोटिनांशतान्पंचपंचाशत्कोटी संयुतान्॥५४॥ पंचत्रिंशच्च लक्षाणि पंचाशच्च सहस्रकान् । . योजनानामतिक्रम्य तस्मिन्नेवारूणोदधौ ॥५५॥ आवासो भाति चमरचंचश्चंचच्छ्यिां निधिः । कम्रः क्रीडारतिस्थानं चमरस्या सुरेशितुः ॥५६॥ विशेषकं । सहस्राण्येष चतुर शीतिमायतविस्तृतः । समंततः परिक्षिप्तः प्राकारेण महीयसा ॥५७॥ सर्वचमरचंचावत् प्रासादादि भवेदिह । न विद्यन्ते परं पंच सुधर्मांद्याः सभाः शुभाः ॥५८॥ उस आवास का स्वरूप इस तरह है - वह आवास चमर चंचा नगरी से नैऋत्य कोण में छ: सौ पंचावन करोड़ पैंतीस लाख पचास हजार योजन छोड़ने के बाद इसी अरूणोदधि समुद्र में आया है । वहां शोभायमान लक्ष्मी के निधान स्वरूप होने से चमरेन्द्र को रति क्रीड़ा करने योग्य मनोहर स्थान है । इसकी लम्बाई चौड़ाई चौरासी हजार योजन की है और इसके चारो तरफ बड़ा किला है यहां प्रासाद आदि सारी बाते चमरचंचा नगरी के अनुसार है, केवल अन्तर इतना है कि यहां सुधर्मादि पांच मनोहर सभा नहीं होती । (५४-५८)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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