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________________ (५३) . प्रत्येकमेतेऽपि चतुर्दिशं चतुर्भिराश्रिताः । सार्ध द्विषष्टिमुत्तुंगैस्तदर्ध विस्तृतैस्तथा ॥३६॥ इन प्रासादों में भी प्रत्येक की चारों दिशाओं में अन्य साढ़े बासठ योजन ऊँचे और सवा इकत्तीस योजन चौड़े चार-चार प्रसाद है । (३६) सपादैकत्रिंशदच्चैस्तदर्धविस्ततैवत्ताः । प्रासादास्तेऽपि प्रत्येकं पुनस्तेऽपि चतुर्दिशम ॥४०॥ इनके भी प्रत्येक की चार दिशाओं में सवा इकत्तीस योजन ऊँचा और इससे आधा चौड़े चार-चार प्रासाद है । (४०) . ससार्धद्विकोशपंचदसयोजन तुंगकैः । तदर्थ विस्तृतैरेवं चतुर्दिशमलंकृताः ॥४१॥ युग्मं । इन प्रत्येक के चारों दिशा में पंद्रह योजन अढाई कोश ऊँचे और इससे आधा चौड़े चार-चार प्रासाद है (४१) एवं समूल प्रासादाः प्रासादाः सर्वसंख्यया ।। चमरस्य भवन्त्येकचत्वारिंशंशतत्रयम् ॥४२॥ इस तरह एक मूल प्रसाद और अन्य इसके चारों तरफ सब मिलाकर कुल तीन सौ एकतालीस प्रासाद चमरेन्द्र के होते हैं । (४२) प्रासादास्ते रत्नमया मरूच्चंचल केतवः । • मृदुस्पशाश्चारूगन्धा दृश्याः सुवर्ण वालुकाः ॥४३॥ वायु से प्रेरित ध्वजाएं उनके ऊपर लहरा रही हैं। ये सब प्रासाद रत्नमय, सुगन्धमयी सुवर्ण की रेती वाले और कोमल स्पर्श वाले होने से वास्तव में देखने योग्य है । (४३) · अथ प्रासादेभ्य एभ्य ऐशान्यां स्युर्यथाक्रमम् । सभा सुधर्मा सिद्धायतनं सभोपपातकृत् ॥४४॥ ह्यदोऽभिषेकालंकार व्यवसाय सभाः क्रमात् । . सर्वेऽप्यमी सुधर्माद्या षट्त्रिंशद्योजनोचूिताः ॥४५॥ दीर्घा पंचाशतं पंचविंशतिविस्तृता इह । वैमानिक सभादिभ्यो मानतोऽर्धमिता इति ॥४६॥ विशेषकं । ... अब इन प्रासादो से इशान कोने में अनुक्रम से १- सुधर्मा सभा,
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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