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(५१) शिखर पर मध्य में एक सुन्दर प्रासाद महल है । उस प्रासाद की ऊँचाई अढाई सौ योजन है और विस्तार में सवा सौ योजन है तथा फर्स आदि अत्यन्त रमणीय है । (२३-२४)
अष्ट योजन मानाथ तत्रास्ति मणिपीठका । चमरेन्द्रस्यात्र सिंहासनं सहपरिच्छदम् ॥२५॥
इसके अन्दर एक आठ योजन के प्रमाण वाली मणि पीठ है और उस मणि पीठ पर चमरेन्द्र का परिवार युक्त सिंहासन है । (२५)
तिर्यग्लोकं जिगमिषुः जिन जन्मोत्सवादिषु । प्रथमं चमरेन्द्रोऽस्मिन्नुपैति स्वाश्रयात् गिरौ ॥२६॥ ततो यथेप्सितं स्थानमुत्पतत्य विलम्बतः । तेनायं चमरेन्द्रस्य ख्यात् उत्पात पर्वतः ॥२७॥
श्री जिनेश्वर भगवान के जन्म महोत्सव आदि प्रसंग पर चमरेन्द्र को तिरछे लोक में से आने का हो तब अपने आवास से निकल कर प्रथम इसी ही पर्वत पर आता है और फिर जहां जाना हो वहां उत्पतन पूर्वक अर्थात् उडकर जाता है। इसी कारण से ही यह चमरेन्द्र का उत्पात पर्वत कहलाता है । (२६-२७)
षट् शतान्यथ कोटीनां पचंपंचाशदेव च ।।
कोटयो लक्षाण्यथ पंचत्रिंशल्लक्षार्धमेव च ॥२८॥ - योजनानि तिर्यगस्मात्तिगिंछिकूटपर्वतात् ।
अति क्रम्य दक्षिणस्यां मध्येऽरुणवरोदधेः ॥२६॥ यो देशस्तदधोभागे मध्ये रलप्रभाक्षिते । चत्वारिंशद्योजनानां सहस्राण्यवगाह्य च ॥३०॥ राजधान्यस्ति चमरचंचा चंचन्मणिमयी ।
व्यासायामपरिक्षेपैर्जम्बूद्वीपसधर्मिणी ॥३१॥ कलापकं । . इस तिगिछि कूट पर्वत से तिरछे दक्षिण दिशा में छह सौ पचपन करोड़ साढे पैंतीस लाख योजन छोड़ने के बाद अरूण वर समुद्र के मध्य भाग में जो प्रदेश हैं उसके अधोभाग में रत्नप्रभा पृथ्वी के मध्य में चालीस हजार योजन अवगाही वाली चमरेन्द्र की विशाल मणिरत्नों के कारण प्रकाशमय लम्बाई-चौड़ाई युक्त परिधि के अन्दर जम्बू द्वीप समान चमरचंचा नामक राजधानी है । (२८-३१)