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________________ (४६) चत्वारिंशतथा षट्त्रिशदुक्ता दिग्द्वये क्रमात् । स्तनितानां गृहाः सर्वेलक्षाः षट्सप्ततिः किल ॥११॥ स्तनित कुमार के भवन दक्षिण दिशा में चालीस लाख व उत्तर दिशा में छत्तीस लाख मिलाकर कुल छहत्तर लाख है (११) चतस्रः कोटयो लक्षाः षट् गृहा दक्षिणाश्रिताः । उत्तराहास्तु षट्षष्टिः लक्षास्तित्रत्रश्च कोटयः ॥१२॥ इस तरह कुल गिनती करने से दक्षिण दिशा में कुल चार करोड़ छः लाख भवन है तथा उत्तर दिशा में तीन करोड़ छियासठ लाख है । (१२) द्वयोर्दिशोश्च सर्वांगं भवनानामुदाहृतम् । कोटयः सप्त लक्षाणां द्वासप्तत्या समन्विताः ॥१३॥ इस तरह दोनों दिशाओं के समग्र मिलाकर कुल सात करोड़ इकहत्तर लाख भवन होते हैं । (१३) आकारेण सुषमया प्राकारपरिखादिभिः । व्यन्तराणां नगरवत् प्रायो ज्ञेयान्यमून्यपि ॥१४॥ ये भवन आकार में शोभा में तथा कोट और खाई आदि में प्रायः पूर्वोक्त व्यन्तरों के नगरों के समान होते हैं (१४) गुरुणि तान्यसंख्येयैर्मितानि खलु योजनैः । मध्यानि संख्येयैर्जम्बूद्वीपाभानि लघून्यपि ॥१५॥ इसमें भी बहुत बड़े बड़े आवास- भवन होते हैं वह असंख्य योजन प्रमाण होते हैं । मध्यम आवास होता है, वह भी संख्यात् योजन प्रमाण का होता है और छोटा आवास होता है । वह भी जम्बूद्वीप समान होता है । तत्रासुरनिकायस्य दक्षिणस्यां दिशि प्रभुः । चमरेन्द्रः शरच्चन्द्रचन्द्रिकाविलसद्यशः ॥१६॥ वहां दक्षिण दिशा में असुर कुमारों का स्वामी चमरेन्द्र है । जिसका शरद ऋतु के चन्द्रमा की चान्दनी समान स्वच्छ निर्मल यश चारों दिशा में फैल रहा है । (१६). तथाहि - विद्यते दक्षिणदिशि तिर्यग्मेरोः सुदर्शनात् । असंख्य द्वीपाब्धिपरो द्वीपो रूणवराभिधः ॥१७॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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